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semester- 3 साहित्य की परिभाषा

          साहित्य की परिभाषा - साहित्य का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए संस्कृति, हिन्दी और पश्चात के विद्वानों ने साहित्य की जो परिभाषाऐ पस्तुत की है उसे देखना होगा। कुछ मह्तवपुर्ण परिभाषाओं को ही हम यहाँ पस्तुत करेगे। पस्तुत परिभाषाऐ डा० भगीरथ मिश्रा के काव्य शास्त्र ग्राथ से यहाँ ली गयी है- (अ) संस्कृति विद्वानों द्वारा साहित्य की परिभाषा-(1) अग्नि कुराण-
[संक्षेपाद्वाव्यमिष्टार्थव्यवच्छिना पदावली।
काव्यं स्फुरदलंकारं गुणवद्दोपवर्जितम् ।। ]
अर्थात् - संक्षेप में इष्ट अर्थ को प्रकट करने वाली पदावली से युक्त ऐसा वाक्य काव्य है,जिसमे अलंकार प्रकट हो, और जो दोषरहित और गुणयुक्त हों।
भामह की परिभाषा -[ शब्दार्थो सहिर्तो काव्यम् ]
अर्थात् - शब्द अर्थ का संयोग काव्य है। यह परिभाषा अत्यन्त व्यापक है, क्योकि इसमें क्षेत्र में काव्य के अतिरिक्त शास्त्र , इतिहास , वार्तालाप आदि सभी आ जाते है। इस कारण इसमें अतिव्याप्ति का दोष है।
आचार्य विश्वनाथ - [ वाक्यं रसात्मक काव्यम् ]
अर्थात् - रसयुक्त वाक्य काव्य है।
पंडितराज जगन्नथ - [ रमणीयार्थ पतिपदक: शब्द काव्यम् ]
अर्थात् - रमणी अर्थ का प्रदिपदन करने वाला शब्द काव्य है।
आचार्य दण्डी - [ काव्य शोभाकरन धर्मान अलंकारण पछश्यते ]
अर्थात् - काव्य को शोभा प्रधान करने वाले धर्म अलंकार हुए।
वामन - [ रीतिरात्माकाव्यस्य ]
अर्थात् - काव्य की आत्मा रीति है।
आनन्दवर्धन - [ काव्यस्यात्माध्वनि: ]
अर्थात् - ध्वनि ही काव्य की आत्मा है।
कुन्तक - [ वक्रोक्तिकाव्यजीवित्म ]
अर्थात्- काव्य का जीवन वक्रोक्ति है। कुल मिलकर कहाँ जा सकता है कि शब्द और अर्थ अथवा दोनो की रमणीयता से युक्त वाक्य रचना को काव्य कहते है।
हिन्दी विद्वानों द्वारा साहित्य की परिभाषा - आचार्य रामचन्द्र शुक्ला - ' कविता जीवन और जगत की अभिव्यक्ति है।
आचार्य महावीर प्रसाद त्रिवेदी - अन्तकरण की दिप्तीयों के चित्र का नाम कविता है।
जयशंकर प्रसाद - काव्य आत्मा की संकलात्मक अनुभूति है।
सुमित्रानन्दपंत - कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है।
अंग्रेज़ी विद्वानों द्वारा साहित्य की परिभाषा - कॉलरिज ने लिखा है - poetry is the best words in their best order '
अर्थात् - सर्वोत्तम शब्द अपने सर्वोत्तम क्रम में कविता होता है।
वर्डसवर्थ ने लिखा है - poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings, it takes its origin from emotions recollected in tranquillity.
अर्थात् - कविता प्रबल अनुभूतियों का सहज उद्रेक है, जिसका स्रोत शान्ति के समय में स्मृत मनोवेगों से फूटता है।
मैथ्थू आरनॉल्ड ने लिखा है - poetry is, at bottom a criticism of life.
अर्थात् - कविता अपने मूल रूप मे जीवन की आलोचना है।
चैम्बर्स कोश लिखते है - poetry is the art of expressing in melodious words, thoughts which are the creations of imagination and feelings.
अर्थात् - कल्पना और अनुभूति से उत्पन्न विचारों को मधुर शब्दों में अभिव्यक्त करने को कला, कविता है।
इस प्रकार संस्कृत, हिन्दी अंग्रेजी विद्वानों द्वारा अलग - अलग प्रस्तुत की गई है , जिनसे साहित्य को समझना कठिन है। वस्तुतः ये परिभाषाऐ अव्याप्ति या अतिव्याप्ति दोष से मुक्त है। इसके अतिरिक्त इन्होंने साहित्य क्या है , इसका उत्तर देने के स्थान पर काव्य और कवि काव्य या पाठक तथा काव्य और जीवन के संबंध को सूचित किया है। जिससे मूल प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता है। ये परिभाषा साहित्य स्थल के विभिन्न दृष्टिकोण को एवं पक्षों को सूचित किया जाता है। अत: इनमें से किसी भी साहित्य को एक सर्वाग्डीण परिभाषा के रूप में स्वीकार करना कठिन है। इस कारण साहित्य के स्वरूप स्पष्टीकरण केवल परिभाषा का निर्धारण पर्याप्त नहीं है , इसके तत्वों को समझना भी जरूरी है।       
 साहित्य के तत्व
      साहित्य को सम्यक रूप से समझने के लिए उसके लक्षणों के साथ-साथ उसके प्रमुख तत्वों की जानकारी भी अपेक्षित है। साहित्य के मुख्यतः चार तत्त्व निर्धारित किये गये हैं--(1) भाव, (2) कल्पना, (3) बुद्धि और (4) शैली । साहित्य का सर्वप्रमुख तत्वभाव' ही हैयही उसकी आत्मा है। साहित्य का सर्वप्रमुख लक्षण रागात्मकता है जिसके लिए भावों का चित्रण अपेक्षित है। स्थूल घटनाओं और विस्तृत इतिवृत्त के निरूपण की अपेक्षा साहित्य में सूक्ष्य भावनाओं का अधिक महत्व है। दूसरे, साहित्य का लक्ष्य पाठक की ज्ञान-वृद्धि करना नहीं, अपितु उसके हृदय को भावनाओं से आप्लावित कर देना होता है, इस लक्ष्य की पूर्ति भावों के चित्रण के द्वारा सम्पन्न होती है।
हमारे प्राचीन आचार्यों ने साहित्य की इस आत्मा-भाव तत्वको आज से दो सहस्र वर्षों पूर्व ही पहचान लिया था। आदि आचार्य भरतमुनि ने स्पष्ट रूप से साहित्य का लक्ष्य भावानुभूति को घोषित करते हुए भावनाओं का वर्गीकरण और विश्लेषण किया है। उन्होंने भावों के दो वर्ग किये हैं-संचारी और स्थायी। आगे चलकर भोजराज, अभिनवगुप्त, मम्मट, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने भरत के भाव सम्बन्धी विवेचन को और आगे बढ़ाया। कहना न होगा कि भारतीय आचार्यों द्वारा किया गया भावों का विवेचन आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से भी अत्यन्त संगत एवं शुद्ध है। आधुनिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी भाव की दो कोटियाँ हैं--() इमोशन (Emotion) और () सेंटीमेंट (Sentiment)। इमोशन और सेंटीमेंट क्रमशः संचारीभाव और स्थायीभाव से गहरा साम्य रखते हैं। भाव के सम्बन्ध में भारतीय आचार्यों ने तीन अंगों का विवेचन किया है-
आलम्बन, उद्दीपन और अनुभाव । आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी इन्हें स्वीकार किया है।
 साहित्य का दूसरा क्त्व कल्पना है। साहित्य में भावनाओं का चित्रण कल्पनाशक्ति के प्रयोग के द्वारा ही सम्पन्न होता है। एक साधारण-से-साधारण घटना को भी कवि कल्पना, के रंग में रंगकर ऐसा भव्य रूप प्रदान कर देता है कि वह हमारे हृदय को बलात् आकर्षित कर लेता है। उदाहरण के लिए हम एक समाचार-पत्र में पढ़ते हैं कि जर्मनी का एक जहाज डूब गया जिसमें चार सौ व्यक्ति सवार थे। इस समाचार को पढ़कर हमारे मस्तिष्क में थोड़ी हलचल भले ही हो जाय, किन्तु उसका इतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ेगा कि हम शोक से अभिभूत होकर आँसू बहाने लग जायँ। किन्तु जब कवि इसी घटना को कल्पना के द्वारा चित्रित करके हमारे सामने प्रस्तुत करेगा तो चार सौ व्यक्ति तो क्या एक व्यक्ति के भी डूबने की घटना हमारे हृदय में करुणा की शत-शत धाराएँ उद्वेलित कर सकती है। वह हमें बतायेगा कि उस डूबने वाले जहाज में कौन-कौन व्यक्ति बैठे हुए थे, उनके हृदय में अपने प्रियजनों के मिलन की. उत्कंठा किस प्रकार उद्वेलित हो रही थी; वे स्वदेश-गमन के किन-किन स्वप्नों को सँजोए हुए जा रहे थे, उनके घर पर उनकी असहाय वृद्धा माँ या चिरवियोगिनी पत्नी या दर्शनों की लालसा से विभोर छोटे-छोटे भोले बालक किस प्रकार प्रतीक्षा कर रहे थे, जब जहाज डूबने लगा तो उस पर बैठे हुए प्राणियों की क्या दशा हो गई थीकिस प्रकार क्षण-क्षण में पुरुष यात्रियों की चिन्ता महिलाओं की चीख-पुकार और बच्चों का करुण-रोदन बढ़ता जा रहा था। जीवन के अन्तिम क्षणों को सिंह की तरह आगे बढ़ता देखकर उन गौतुल्य यात्रियों का हृदय किस प्रकार शोक-विह्वल होकर हाहाकार कर उठा था और फिर उनके डूब जाने के समाचार को सुनकर चिर-प्रतीक्षा में लीन उनके प्रियजनों की क्या दशा हो गई थीइन सबका चित्रण करता हुआ एक सच्चा कवि इस छोटी-सी घटना का ऐसा वर्णन कर सकता है कि हमारा हृदय पिघलकर आँसुओं की धारा में बहने लगे। वस्तुतः कवि अपनी कल्पना के बल पर दूसरों के दुःख-सुख और दूसरों की अनुभूतियों का चित्रण इस प्रकार कर देता है। कि वह हमारा दुःख-सुख बन जाय । परोक्ष की घटना को वह प्रत्यक्ष रूप में, अतीत की घटना को वर्तमान में और सूक्ष्म भाव को स्थूल रूप में प्रस्तुत कर देता है। इसका श्रेय उसकी कल्पना-शक्ति को ही है।
काव्य में सौन्दर्य और चमत्कार की सृष्टि भी कल्पना के द्वारा ही की जाती है। न जाने हमारे कितने कवियों ने नारी की सूक्ष्म छवि के अंकन में अपनी अद्भुत कल्पना का परिचय दिया है। सुन्दरियों के सामान्य रूप-वैभव को उन्होंने चन्द्र की ज्योत्स्ना, दामिनी की चमक, रजनी की शीतलता, ओस की तरलता, पुष्प की प्रफुल्लता आदि से समन्वित । करके अलौकिकता प्रदान कर दी है। यही नहीं, संसार के असंख्य निर्जीव पदार्थों और प्रकृति के अगणित चेतनाविहीन रूपों को भी कवि की कल्पना ने सजीवता और चेतना प्रदान कर दी है। धरती की गोद में कल-कल प्रवाहिनी सरिता को कालिदास की कल्पना ने एक ऐसी मद-विह्वला रमणी का रूप प्रदान कर दिया जिसके अगाध जलरूपी नितम्बों से लहरों के रूप में उद्वेलित वस्त्र बार-बार खिसका जा रहा था ! नदी की चंचल तरंगों को उसने कामिनी के उन चंचल कटाक्षों का रूप प्रदान कर दिया जो वह अपने किसी प्रिय की ओर निक्षेप कर रही हो ! अमरुकशतक के रचयिता ने युवती-बालाओं के द्वारा किए गए अपमान की मीठी पैंट में ही स्वर्ग के अमृत की कल्पना करके अपने हृदयागार को तृप्त कर लिया | भर्तृहरि की कल्पना नारी के उरोज-द्वय में एक ऐसी दुर्गम घाटी की रचना कर लेती है, जहाँ सेमररूपी तस्कर विराजमान है और जो मनरूपी पथिकों का सर्वस्व लूट लेता है ! मैथिलकवि विद्यापति चंदन-चर्चित पयोधरों में अपने इष्टदेव शिव की कल्पना करके ही कृतकृत्य हो जाते हैं! प्रेम-पन्थ के परिचायक पद्मावतकार की कल्पना-रानी तो निर्जीव तोपों को भी मद-विह्वल गजगामिनियों का रूप प्रदान करके उन्हें युवकों का प्राण ले लेनेवाली शक्ति से युक्त कर देती है ! और आगे चलकर केशव, बिहारी, पद्माकर, भारतेन्दु, प्रसाद, पंत और महादेवी की कल्पना जो चमत्कार दिखाती है। उसका तो कहना ही क्या ! वस्तुतः प्रत्येक युग और प्रत्येक भाषा का साहित्य कल्पना-शक्ति की अपूर्वक्षमता, अद्भुत वैभव और अलौकिक चमत्कार की कहानियों से भरा पड़ा है। वेदान्तवादियों के यहाँ जो स्थान 'माया' का है वही साहित्य में 'कल्पना' का है, अन्तर केवल इतना ही है कि उसकी माया सत् को असत्, में सूक्ष्म को स्थूल में और अलौकिक को लौकिक में परिवर्तित कर देती है जब कि साहित्यकार की कल्पना असत् को सत् में स्थूल को सूक्ष्म में तथा लौकिक को अलौकिक में परिवर्तित कर देने की विशेष शक्ति से भी विभूषित है! साहित्य-जगत् का सम्राट् भाव' और 'कल्पना' उसकी दासी है। किन्तु कभी-कभी जब कल्पना भाव से भी आगे बढ़कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन स्वतंत्र रूप में करने लगती है तो साहित्य का वैभव नष्ट हो जाता है। भाव-शुन्य कल्पना साहित्य को कोरा चमत्कार बना देती है। बिहारी जैसे कवि जब इस तथ्य को भूलकर कल्पना का अत्यधिक आश्रय ग्रहण करने लगते हैं तो वहाँ काव्यात्मकता नष्ट हो जाती है। अतः साहित्य में कल्पना का उपयोग भावनाओं के चित्रण और विकास के लिए ही होना चाहिए, अन्यथा वह महत्वहीन हो जाती है। साहित्य का तीसरा तत्व बुद्धि है। बुद्धि का सम्बन्ध तथ्यों, विचारों और सिद्धान्तों से है। साहित्य में किसी-न-किसी मात्रा में तथ्यों, विचारों और सिद्धान्तों का भी समावेश किया जाता है। इनके अभाव में कोरी भावनाओं का स्पन्दन दुःखी का चीत्कार बन जायेगी तथा बुद्धिशून्य कोरी कल्पना में और पागल के प्रलाप में कोई अंतर शेष नहीं रह जायेगा। अन्ततः साहित्य में वस्तुओं और घटनाओं का चित्रण उनके उचित रूप में ही किया जाता है। कथा-वस्तु की सूक्ष्म रेखाओं के निर्माण के लिए, घटनाओं की श्रृंखला को मिलाने के लिए और कार्य के अनुरूप फल दिखाने के लिए प्रत्येक प्रबन्धकार, कहानीकार और उपन्यासकार को बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त भावनाओं की सुदृढ़ ईंटों को वह विचारों के गारे से जोड़ कर काव्य भवन का निर्माण करता है। अतः न्यूनाधिक मात्रा में साहित्य में बुद्धितत्व भी सर्वत्र विद्यमान रहता है।
 कुछ साहित्यकार तो निजी विचारों एवं सिद्धान्तों के प्रचार के उद्देश्य से ही साहित्यरचना में प्रवृत्त होते हैं, अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि साहित्य में विचारों को कहाँ तक स्थान देना चाहिए। हमारे विचार से विचारों या सिद्धान्तों आदि का अभिधा शैली में वर्णन न होकर उनकी सूक्ष्म रूप में व्यंजना होनी चाहिए। निर्मला' उपन्यास में प्रेमचन्दजी कहीं भी यह नहीं लिखते कि दहेज-प्रथा या वृद्ध-विवाह बुरा है, किन्तु उस उपन्यास के पढ़ने से ये विचार स्वतः ही पाठक के हृदय में उत्पन्न हो जाते हैं। विचारों का चित्रण उसी सीमा तक होना चाहिए, जहाँ तक वे रचना के भाव-सौन्दर्य में बाधक न हों । साहित्य की आत्मा या उसका प्राण भाव है, अतः उसे किसी भी स्थिति में ठेस नहीं लगनी चाहिए। भाव-शून्य विचारों का वर्णन साहित्य की संज्ञा से वंचित करके उसे दर्शन, नीति-शास्त्र या उपदेश-ग्रन्थ का रूप दे देता है।
साहित्य के चौथे तत्व शैली'  कवि या साहित्यकार जिस भाषा, जिस रूप और जिस ढंग से अपने भावों, विचारों या इतिवृत्ति को व्यक्त करता है, वही शैली है। शैली के अन्तर्गत भाषा, शब्द-चयन, अलंकारों का प्रयोग, छन्दों का उपयोग, काव्यरूप आदि का समावेश किया जाता है। काव्य के प्रारम्भिक तीन तत्व यदि उसके प्राण हैं।
तो शैली उसका शरीर है। जैसे बिना शरीर के प्राण नहीं टिक सकते, वैसे ही बिना भाषा आदि के साहित्य का निर्माण नहीं हो सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि यदि साहित्य का भाव-पक्ष उत्कृष्ट हो तो साधारण या दोष-पूर्ण शैली से भी काम चल सकता है, किन्तु सर्वोत्कृष्ट साहित्य वह है जिसका भाव-पक्ष और शैली-पक्ष (या कला-पक्ष) दोनों प्रौढ़ हों। किन्तु जब कविगण कवि केशव की भाँति शैली को ही सजाने में इतने अधिक लीन हो जाते हैं कि वे भाव-पक्ष को सर्वथा भुला बैठते हैं तो काव्यत्व का हनन हो जाता है। हमारे कुछ आचार्यों-जैसे वामन, कुन्तक, भामह आदि ने भी शैलीगत गुणों को ही काव्य की आत्मा सिद्ध करने का असफल प्रयत्न किया था। फिर भी उनके द्वारा शैली सम्बन्धी सूक्ष्मातिसूक्ष्म गुणों की व्याख्या अत्यन्त सूक्ष्म रूप में हुई, जिसका महत्व कम नहीं । पाश्चात्य विद्वानों ने शैली का सम्बन्ध कवि के व्यक्तित्व से माना है। इस प्रकार साहित्य के प्रमुख लक्षणों एवं उसके तत्वों की व्याख्या के अनन्तर हम कह सकते हैं जिस प्रकार ईश्वर के अनेक रूप एवं अनेक नाम हैं, उसी प्रकार साहित्य भी नाना रूपों और नाना संज्ञाओं से विभूषित है। उपर्युक्त लक्षणों और तत्वों का ज्ञान भी साहित्य के स्वरूप को आंशिक रूप में ही समझने में सहायता देता है; उसकी आत्मा का तो पूर्ण साक्षात्कार तभी सम्भव है जबकि हमारे हृदय में भावनाओं और अनुभूतियों का प्रकाश हो, हमारे मस्तिष्क में गंभीर अध्ययन की ज्योति हो और हमारे व्यक्तित्व में साधन का बल हो।
साहित्य के भेद – (1 ) पद साहित्य (2 ) गद्द साहित्य ।  पद  साहित्य – महाकाव्य, खंडकाव्य , गीत , कविता , पद ।
गद्द साहित्य – उपन्यास , कहानी , नाटक , निबंध, अलोचना , जिविनि , संस्मरण , सचेतकर , रिपोतार्ज  आदि  
       
साहित्य का उद्देश्य :-
साहित्य का उद्देश्य विवेचित करना आसान कार्य नहीं है पर यह प्रश्न उठना बहुत स्वाभाविक है। रचनाकार किस लिए रचना कर रहा है? वह रचना कर, उसको सबके साथ बाँटना क्यों चाहता है? आखिर ऐसा करने में उसका उद्देश्य क्या है यानि अन्तत: साहित्य का उद्देश्य क्या है?
यह विषय कुछ लम्बा है, जीवन की तरह लम्बा कहें या साहित्य के इतिहास की तरह कहें, पर इसे दो-चार सूक्तियों, उद्धरणों में बाँधा नहीं जा सकता - यह तय है। समय के साथ-साथ साहित्य ने रूप बदले, कभी हमें वीरों की गाथाएँ सुनाईं तो कभी भगवान की महिमा गाई। कभी कामिनियों की देह-यष्टि में यह उलझा है, फिर कभी दुखी जन की पीड़ा गाई तो कभी प्रकृति का राग छेड़ा। कहने का मतलब कि साहित्य-यात्र में कवियों ने काल और स्थितियों के अनुसार साहित्य का उद्देश्य बार-बार बदला। साहित्य के उद्देश्य से इसमें विस्तार आया जिसने साहित्य को हर युग में नवीन बनाए रखा पर जैसे अनेक सम्बन्धों में बँट कर भी मुनष्य वही एक मनुष्य रहता है जिसके साँस लेने में, जीवित रहने का कोई एक अर्थ रहता है और उसी अर्थ की खोज में वह जीवन भर लगा रहता है! ठीक उसी तरह से साहित्य के उद्देश्य की चर्चा मुझे दुस्तरीय लगती है और कुछ दुस्तर भी लगती है।
संस्कृत साहित्य के समय में साहित्य के भीतर, पहले स्तर को पकड़ने की चेष्टा, साहित्य-शास्त्रियों ने की थी। कहीं साहित्य के उद्देश्य का उन्होंने कभी "भावों" की प्रस्तुति बताया तो कभी "कला" की। बाद में कभी साहित्य का उद्देश्य "आदर्शों" की स्थापना रहा तो कभी "यथार्थ" की। चिंतन-संघर्ष के उत्तर प्रतिउत्तरों के बीच मुझे आचार्य मम्मट की यह उक्ति, साहित्य उद्देश्य के भीतरी क्षेत्र के अधिकांश भाग को समेटती हुई लगती है -
"काव्यं यशसे, अर्थकृते, व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये
सद्य: परवितृतय: कान्तासम्मित तयोपदेशयुजे"
                                            (काव्य-प्रकाश)
आचार्य मम्मट कहते हैं कि काव्य का उद्देश्य यश की प्राप्ति, अर्थ की प्राप्ति और शिव यानि मंगल की स्थापना है। वह सकल प्रयोजनों को पत्नी की भांत मधुर शब्दों के उपदेश से कहता है। आचार्य मम्मट वेद्यन्तर को विगलित कर परमानंद की अनुभूति देना भी साहित्य का उद्देश्य मानते हैं।
इस परिभाषा की प्रथम पंक्ति कालातीत है। सबका मंगल चाहना, दुख पाकर दुख की आँच को समझना और उस आँच में तपते हृदयों के साथ ’सम-वेदना’, समत्व स्थापित कर, उनका कंधा थपथपा, सहयात्री, सहभोगी, सहयोगी के रूप में आना - साहित्य का सदा से उद्देश्य रहा है चाहे वह ’मेघदूत’ के यक्ष के विरह का दुख हो या मुक्तिबोध के "ब्रह्मराक्षस" या "अंधेरे में" के पात्रों की पीड़ा - सब युगों में साहित्य ने दुख में, जीवन में संघर्षों में साँझा करने की चेष्टा की है। "अज्ञेय" की कविता की यह पंक्तियाँ यहाँ मुझे याद आ रही हैं --
"दुख सबको माँजता है
स्वयं चाहें
मुक्ति देना वह न जाने
पर जिन्हें वह माँजता है
उन्हें यह सीख देता है...
कि सबको मुक्त रखें।.."
दु:ख झेलकर, संघर्ष से निकल कर "मुक्त" हो जाना और अपनी मुक्ति में सबको सहभागी बनाने की चेष्टा ही संभवत: साहित्य की शाश्वता का रहस्य है - हरेक से जुड़ने और हर जीवन के भीतर से "तिर" आने की अदम्य इच्छा ही साहित्य का उद्देश्य है।
साथ ही यश और अर्थ की इच्छा भी साहित्य के लौकिक उद्देश्य हैं जिनसे इन्कार नहीं किया जा सकता।
इक्कीसवीं सदी के चौथे वर्ष में संसार को यह तो विश्वास हो चला है कि अब कोई सभ्यता जब अपने मूल्यों को परिभाषित करने बैठेगी तो उसे आयातित या विदेश प्रभावों से आए परिवर्तनों के कारण, इस परिभाषा को लिखने में अनेक प्रश्नों से उलझना पड़ेगा। यही उलझन इस लेख में मुझे आ रही है। समय के साथ साहित्य के रूप में इतने परिवर्तन आए हैं कि हर युग में अपना उद्देश्य-रूप बदलते साहित्य को सारांश में विवेचित-विश्लेषित कर पाना कठिन है। "ग्लोबलाइजेशन’ से जहाँ मुनष्य-मनुष्य के निकट आया है, वहीं अपने क्षेत्रें से निकल कर दूर-दराज़ के देशों में भी पहुँच गया है। उसके पहुँचने के साथ-साथ पहुँची है उसकी भाषा और उसका साहित्य और उसकी रचना शक्ति। आज ’वेबपत्रिकाओं’ से हम इस रचनाशक्ति को विश्व के किसी भी कोने से बैठ कर पढ़ सकते हैं। पिछले दशक से बाहर पहुँचे लोगों की रचनाओं के प्रकाशित रूप भी बहुत अधिक दिखाई देने लगे हैं। अब साहित्य के उद्देश्य या स्वरूप या इतिहास की चर्चा केवल भारत के रचनाकारों की रचनाओं के आधार पर नहीं की जा सकती अपितु ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, नार्वे, ट्रिनिडाड और उत्तरी अमरीका आदि में रहने वाले लेखकों की रचनाओं को भी हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में सम्मिलित करना होगा, उन्हें ’प्रवासी लेखक’ कह कर हाशिये पर बहुत देर तक नहीं रखा जा सकता।
इससे साहित्य के आलोचकों और साहित्यशास्त्रियों की समस्याएँ बढ़ेंगी, क्योंकि युग और काल के साथ-साथ स्थान के प्रभाव को समेटे वर्तमान रचनाएँ किसी एक साहित्य सिद्धान्त से बँधी नहीं रह पायेंगी। किसी एक विचार और सूत्र से इन रचनाओं को आंकने की चेष्टा करने की हठधर्मिता में रचनाकार के हृदय का मर्म, कर्मस्थली का प्रभाव और बदलती सामाजिक संरचना की उपेक्षा हो जाने का भय है। बात केवल परिवेश की होती तो उस परिवेश का विवेचन विलश्षण करके आगे बढ़ा जा सकता था पर देश से बाहर बैठे रचनाकारों के हृदय-मस्तिष्क में स्मृतियों और संस्कारों का जो एक बड़ा संसार है, उसका अन्वेषण करना सरल नहीं है। यह स्मृतियों और संस्कारों का संसार केवल ’देश की याद’ दिलाने वाली ’नास्टेलिजिक’ रचनाओं में ही नहीं उभरता है अपितु वर्तमान भारत की संक्षिप्त यात्राओं में यथार्थ से साक्षात्कार कराता, घर के भीतर चलते पूर्व-पश्चिम मूल्यों में भी उभरता है। इसके साथ ही समस्या है अभिव्यंजना-शैली की। कोई लेखक चालीस वर्ष पूर्व आया पर उसकी स्मृति में सन्‌ साठ का मोहभंग नहीं, सन्‌ तीस पैंतीस का छायावाद स्मृति में बसा है, कोई ’नवगीत’ का प्रभाव लिए है तो कोई ’हालावाद’ की छाया में लिख रहा है। ऐसा नहीं कि भाषा-अभिव्यंजना में नवीन रूप देखने को नहीं मिलता हो, प ऐसा कम है। ऐसा लग सता है कि दो विरोधी बातें हैं - एक ओर प्रवासी हिन्दी लेखकों को मूलधारा से जोड़ने की बात कहना और दूसरी ओर उनके साहित्य पर पुराने हो चुके "वादों" का प्रभाव बताना। वस्तुत: ये विरोधी बातें नहीं अपितु ऐसा संश्लिष्ट सत्य है जिसके कारण एक नए प्रकार की चिंता, बहस साहित्यशास्त्रियों में प्रारंभ हो चुकी है और निकट भविष्य में भी इस एकीकरण की प्रक्रिया का सटीक समाधान निकलता नहीं दिखाई देता।
देवेन्द्र इस्सर अपने लेख "नई शती में विचारों का भविष्य और भविष्य" में इस समस्या के संबंध में लिखते हैं-- "वास्तव में समस्या यह है कि उत्तर उपनिवेशवादी विमर्श प्रवासी व्यक्तियों की विभाजित संस्कृति से उत्पन्न हुआ है। एडवर्ड सईद (फिलीस्तीन) हो या सारा सुलेरी (पाकिस्तान) या गायत्री स्पिवाकु और होमी भाभा (भारत), ये सब सांस्कृतिक "स्कीजोफ्रीनिया और भ्रम की परवरिश कर रहे हैं। अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटकर स्वदेश को त्यागकर दूसरी संस्कृतियों में प्रवेश करने के कारण उनके संवाद के पात्र और उस संवाद के स्रोत उसी संस्कृति को लोग हैं।"
देवेंद्र इस्सर की बात में मुझे आंशिक सच्चाई ही दिखाई देती है। प्रवासी भारतीय लेखकों पर "स्कीजोफ्रीनिया और भ्रम की परवरिश करने" का आरोप से मैं सहमत नहीं हूँ। जिसे इस्सर जी "भ्रम" कहकर किनारे पर धकेल रहे हैं, वह साहित्य प्रवासी जीवन के संघर्ष का साहित्य है। यह संघर्ष भारत में रहनेवाले मध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन से भिघ् प्रतीत हो सकता है पर अन्तत: बuनियादी चिन्ताओं में, प्रवासी मध्यवर्गीय भारतीय और भारत के मध्यवर्गीथ व्यक्ति की चिन्ताओं में कोई अधिक अन्तर नहीं है। बल्कि जो सामाजिक-सांस्कृतिक सहयोग वहाँ के मध्यवर्गीय व्यक्ति को परिवार और परिवेश से प्राप्त है, उसका विदेश में अभाव होने से प्रवासी भारतीय का संघर्ष - भौतिक और मानसिक स्तर पर दोहरा हो जाता है।
देवेंद्र इस्सर जी का दूसरा आरोप प्रवासी लेखकों पर अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटने का है, वह भी कम से कम हिन्दी लेखकों पर लागू नहीं होता, जिनकी रचनाओं में घर-आंगन की याद, घर और देश के स्वर, भारत में रहने वाले लेखकों की रचनाओं से कुछ अधिक ही गूँजते हैं। प्रवासी लेखकों में अत्याधिक प्रसद्धि महाकाव्यों की (शकुन्तला, अनुराग) रचना करने वाले प्रो. हरिशंकर आदेश की कविता इस्सर जी के इस आरोप का उत्तर देते हुए कहती है-
"समय परिस्थितियाँ या भाग्य मुझे बाहर ले आया।
सच कहता हूँ माँ! पर तुमको पल भी भुला न पाया।
रोटी-रोज़ी -सुख-समृद्धि-वैभव से प्रेरित होकार
जितना आया दूर, निकट उतना ही तुझको पाया।।
                  (कविता: "प्रवासी की पाती - भारत माता के नाम" संग्रह -प्रवासी की पाती)
अमरीका के प्रसिद्ध कवि श्री सुरेंद्रनाथ तिवारी अपनी कविता -"आओ, लौट चलें अब घर को" में लिखते हैं -
"उस आँगन की तुलसी ने ही हमको संस्कार सिखाए,
अर्घ्य सिखाया, मंत्र सिखाए, और सिखाई वेद ऋचाएँ
जहाँ कुटुम थी सारी वसुधा, सब चाचा, मामा, मौसी थे
एक प्यार की भाषा जिसने, हृस्र्व, दीर्घ, अनुस्वार सिखाए
फिर से एक बार सीखें हम
जीवन के ढाई आखर को
आओ, लौट चलें अब घर को"
                                           (संग्रह- उठो पार्थ गाँडीव संभालो)
तो प्रवासी हिन्दी कवि की कविता "संस्कृति का त्याग" नहीं करती है बल्कि उसे सहस्र बाहुओं से अपने से लिपटाए है। जिसकी गंध उसके साहित्य में अनेक रूपों में दिखाई देती है।
बात दरअसल उस समझ को पैदा करने की है जिसकी दृष्टि से भारत और भारत के बाहर लिखे जाने वाले साहित्य के स्वरूप को देखा जा सके और उसका निष्पक्ष विवेचन किया जा सके। भारत में लिखा जाने वाला आज का साहित्य और आज से चालीस वर्ष पहले से लिखा जाने वाला उपलब्ध साहित्य भी अक्सर विदेशी विचारकों ( मार्क्स, फ़्रॉयड, मिशल फूको, वर्जीनिया वुल्फ़, एज़रा पाउण्ड और अन्य) से प्रभावित रहा है। ये प्रभावों के आदान-प्रदान, जनसंचार की सुविधाओं से युक्त नए समाज में अवश्यंभावी है। बल्कि मैं समझती हूँ कि यह आदान-प्रदान, हमारी मानसिकता, तार्किक विश्लेषण शक्ति और सत्य को पहचानने की शक्ति को खरा ही करते हैं, कम नहीं, पर जहाँ ये विचार साधन न बन कर लेखक के साध्य हो गए हैं, वहीं प्रतिबद्धता बन कर पाठकोंको भ्रमित करने लगते हैं।
पाठकों को भ्रमित करना साहित्य का उद्देश्य नहीं है, किसी भी युग में नहीं रहा और जो लेखन पाठकों की चिन्तन शक्ति को विस्तार और गहनता देने के स्थान पर केवल एक सोच का ही रंगीन चश्मा देने का कार्य करता है - वह किसी वाद, विचार, पार्टी या मत का घोषणापत्र तो हो सकता है - साहित्य नहीं!

राजीव रंजन प्रसाद :-

साहित्य शब्द को परिभाषित करना कठिन है। जैसे पानी की आकृति नहीं, जिस साँचे में डालो वह ढ़ल जाता है, उसी तरह का तरल है यह शब्द। कविता, कहानी, नाटक, निबंध, रिपोर्ताज, जीवनी, रेखाचित्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे हैं। परिभाषा इस लिये भी कठिन हो जाती है कि धर्म, राजनीति, समाज, समसमयिक आलेखों, भूगोल, विज्ञान जैसे विषयों पर जो लेखन है उसकी क्या श्रेणी हो? क्या साहित्य की परिधि इतनी व्यापक है?

संस्कृत में एक शब्द है वांड्मय। भाषा के माध्यम से जो कुछ भी कहा गया, वह वांड्मय है। साहित्य के संदर्भ में संस्कृत की इस परिभाषा में मर्म है शब्दार्थो सहितौ काव्यम। यहाँ शब्द और अर्थ के साथ भाव की आवश्यकता मानी गयी है। इसी परिभाषा को व्यापक करते हुए संस्कृत के ही एक आचार्य विश्वनाथ महापात्र नें साहित्य दर्पणनामक ग्रंथ लिख कर साहित्यशब्द को व्यवहार में प्रचलित किया। संस्कृत के ही एक आचार्य कुंतक व्याख्या करते हैं कि जब शब्द और अर्थ के बीच सुन्दरता के लिये स्पर्धा या होड लगी हो, तो साहित्य की सृष्टि होती है। केवल संस्कृतनिष्ठ या क्लिष्ट लिखना ही साहित्य नहीं है न ही अनर्थक तुकबंदी साहित्य कही जा सकेगी। वह भावविहीन रचना जो छंद और मीटर के अनुमापों में शतप्रतिशत सही भी बैठती हो, वैसी ही कांतिहीन हैं जैसे अपरान्ह में जुगनू। अर्थात, भाव किसी सृजन को वह गहरायी प्रदान करते हैं जो किसी रचना को साहित्य की परिधि में लाता है। कितनी सादगी से निदा फ़ाज़ली कह जाते हैं
                               “ मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार
                                दुख नें दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।
यहाँ शब्द और अर्थ के बीच सादगी की स्पर्था है किंतु भाव इतने गहरे कि रोम रोम से इस सृजन को महसूस किया जा सकता है। यही साहित्य है। साहित्य शब्द की चीर-फाड करने पर एक और छुपा हुआ आयाम दीख पडता है वह है इसका सामाजिक आयाम। बहुत जोर दे कर एक परिभाषा की जाती है कि साहित्य समाज का दर्पण है। रचनाकार अपने सामाजिक सरोकारों से विमुक्त नहीं हो सकता, यही कारण है कि साहित्य अपने समय का इतिहास बनता चला जाता है।
रामधारी सिंह दिनकर की निम्नलिखित अमर पंक्तियाँ, साहित्य के इस आयाम का अनुपम उदाहरण हैं:
                                       आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
                                       मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
                                       देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
                                       देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
                                   फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
                                   धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
                                   दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
                                   सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
[ संक्षेप में साहित्य” - शब्द, अर्थ और भावनाओं की वह त्रिवेणी है जो जनहित की धारा के साथ उच्चादर्शों की दिशा में प्रवाहित है। ]
डॉ. शैलजा सक्सेना –
                    ‘ भाव की लहरी हृदय में उठ रही, उठती रही है
                     स्वभाव वश मैं लिख रही हूँ
                     क्योंकि लिखने को विवश हूँ,
                     बात अपनी औ तुम्हारी
                     साँझी पीड़ा जो हमारी।
                     वो स्वरों को खोलकर, जाँचना सब चाहते हैं,
                     भाव उठ, बह चले जो, बाँचना सब चाहते हैं,
                     कर्म है उनका यही तो इस कर्म का अधिकार दे दो
                     संग ही मेरे हृदय के मर्म का आधार दे दो।। 
आलोचकों से कवियों की फरियाद और प्रतिवाद का आधार यही रहा है। सदियों से चली आई है कविता और साहित्य की धारा और धारा में फेन सरीखी आलोचना भी। आलोचना यह कि साहित्य क्या? साहित्य के माने क्या? और इसको जाने कौन यानि साहित्य किसके लिए हो और साहित्य कैसा हो?

   ( कोई कहता है कि साहित्य समाज का दर्पण होना चाहिएतो किसी ने इस दर्पण में अपनी ही तस्वीर देखनी चाही। तर्क था कि समाज में व्यक्ति है और व्यक्ति की है अपनी व्यथा और अपनी व्यथा- कथा सुनाने के लिए कविता, कहानी सुनाने में क्या बुराई है? बल्कि अनुभूति की प्रामाणिकताऔर "भोगा हुआ यथार्थ" को साहित्य का आधार माना गया तो समाज के साथ साथ साहित्य व्यक्ति की अभिव्यक्ति भी बना। शास्त्रकारों ने साहित्य में सरेहितकी संधि करके, उस अभिव्यक्ति को साहित्य कहा जो सबका हित करे। सबका हित यानि समाज के प्रत्येक प्राणी का हित करने वाला साहित्य ही वास्तविक साहित्य है, (ऐसा असंभव कार्य तो ब्रह्म तक नहीं कर पाए) आलोचकों ने इस परिभाषा की असाहित्यकता को पकड़ा और सबकी परिभाषा को ज़रा दुरुस्त किया क्योंकि चोर और सिपाही, भ्रष्टाचारी और आदर्शवादी, नौकर और स्वामी, पूँजीवादी और मज़दूर, सबका हित एक ही प्रकार के साहित्य से तो किया नहीं जा सकता अत: सबकी परिभाषा से कुछ लोगों को निकाला जाना आवश्यक और उचित माना गया। लेकिन बचे हुए लोगों को लेकर साहित्य रचने वालों में ठीक उसी प्रकार मतभेद हो गया जैसे नरमदल और गरमदल का सैद्धान्तिक मतभेद था। किसी ने दलित वर्ग को थाम दलित साहित्यलिखने को ही साहित्य का प्रथम कर्त्तव्य बताया तो किसीने त्रस्त मज़दूर-किसानों का लाल परचम थाम, क्रांतिकारी साहित्य रचने को ही प्रमुख माना, किसी ने पूँजीवाद को गरियाया तो किसी ने व्यक्ति के सुख-दुख को गले लगा अकेले आदमी की पीड़ा सुनाने में सार्थकता समझी। कहने का तात्पर्य यह कि साहित्य में कई खेमे बने, कई युगों में कविता, साहित्य बँटा और हर युग के नायक ने साहित्य के नए उद्देश्य का नारा लगाया। उसकी नयी परिभाषा गढ़ी।)



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