भाषा के विभिन्न रूप
वस्तुतः जितने व्यक्ति हैं, उतनी भाषाएं हैं, कारण यह है कि किन्हीं दो व्यक्तियों के बोलने का ढंग एक नहीं होता। इसका प्रमाण यह है कि अंधकार में भी किसी की वाणी सुनकर हम उसे पहचान लेते हैं। यह अन्तर केवल बोलने के ढंग से ही नहीं, उच्चारण, शब्द भंडार, यहां तक कि वाक्य विन्यास में भी देखा जाता है। साहित्य में इसी का अध्ययन शैली के अंतर्गत होता है। प्रेमचंद्र की भाषा प्रसाद से भिन्न है और पन्त की निराला से। हिंदी का प्रयोग तो यों सभी करते हैं, फिर यह अंतर क्यों ? जो इन लेखकों या कवियों की रचनाओं से परिचित है, वे दो - चार पंक्तियां पढ़ते - पढ़ते भी अन्यास कह देते हैं कि यह अमुक की भाषा है। प्रेमचंद और प्रसाद की भाषा मे किसी को भ्रम नहीं हो सकता। यह इसलिए कि उस भाषा के पीछे उनका व्यक्तित्व है व्यक्तित्व का यह प्रभाव शिक्षित व्यक्तियों की ही भाषा में नहीं, बल्कि अशिक्षितों की भाषा में भी उसी रूप में पाया जाता है। जिसका जैसा व्यक्तित्व है, उसकी भाषा उसी सांचे में ढल जाती है।
इस तथ्य को स्वीकार कर लेने पर भाषा के अनंत रूप हो जाते हैं ; वस्तुतः उसके अनंत रूप है भी। भाषा का आभिभाव व्यक्ति में होता है, इसलिए भाषा की उत्पत्ति का आधार वही है, किंतु उसका प्रेरक तत्व समाज है क्योंकि भाषा का उपयोग सामाजिक योग - क्षम के लिए किया जाता है। भाषा के वैयक्तिक और सामाजिक पक्षों की चर्चा अंशत: पहले भी हो चुकी है। भाषा के रूपों पर विचार करते समय इन दोनों पक्षों को ध्यान में रखना आवश्यक है। ये दोनों पक्ष भाषा के पूरक हैं, एक के बिना दूसरे की सत्ता ही संभव नहीं है।
प्रत्येक व्यक्ति की भाषा भिन्न होती है। यदि इस तथ्य तक ही अपने को सीमित रखें तो भाषा के भी अनंत भेद मानने होंगे। एक दृष्टि से यह सही है, किंतु सामाजिक दृष्टि से विचार न करना दृष्टि की एकांगिता का घोतक होगा।
वक्ता के भेद से भाषा के अनेक रूप हो जाते हैं। जिस प्रकार व्यक्ति की निरपेक्ष सत्ता नहीं है, उसी प्रकार उसकी भाषा की भी निरपेक्ष सत्ता नहीं है। विभिन्न दृष्टियों से देखने पर एक ही व्यक्ति विभिन्न श्रेणियों में आता है; उदाहरणार्थ , शिक्षा, संस्कृति, व्यवसाय, वातावरण, पर्यावरण, आदि के भेद से व्यक्ति की स्थिति और संस्कार में भेद पड़ता है जिसका अनिवार्य प्रभाव भाषा पर पड़ता है। अंग्रेजी पढ़ें सभी लोग एक ही भाषा का व्यवहार नहीं करते। डॉक्टर की भाषा से वकील की भाषा भिन्न होती है तो इन्जीनियर की भाषा से भाषाविज्ञानी की। स्थूल दृष्टि से देखने पर सभी अधित और शिक्षित हैं, किंतु उनके विशेषीकरण का प्रभाव उनकी भाषा में भी परिलक्षित होता है। भाषा के पार्थक्य मे उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त इतिहास, भूगोल, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति, आदि का भी पर्याप्त प्रभाव पाया जाता है। भाषा के रूपों का विचार करते समय इन सारी बातों को स्मरण रखना आवश्यक है।
भाषा के तीन रूप होते हैं- वाणी, भाषा और अधिभाषा; अर्थात भाषा की स्थिति तीन प्रकार से संभव है -- व्यक्ति में, समुदाय में, और सामान्य अमूर्त रूप में। सामान्य या अमूर्त रूप भाषा की वह व्यापकता है जिसमें भेद का अवकाश नहीं है। वहां पहुंचकर भाषा निरुपाधी हो जाती है, किंतु शेष दो व्यावहारिक हैं और उन पर विचार किया जा सकता है।
1. परिनिष्ठत भाषा
भाषा का आदर्श रूप वह है जिसमें वह एक वृहत्तर समुदाय के विचार - विनिमय का माध्यम बनती है, अर्थात उसका प्रयोग शिक्षा, शासन, और साहित्य रचना के लिए होता है। हिंदी, अंग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी इसी श्रेणी की भाषाएं हैं। भाषा के इस रूप को मानक, आदर्श या परिनिष्ठित कहते हैं। जो अंग्रेजी के ' स्टैंडर्ड ' शब्द का रूपान्तर है। परिनिष्ठित भाषा विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त और व्याकरण से नियंत्रण होती है ।
2. विभाषा ( बोली )
एक परिनिष्ठित भाषा के अंतर्गत अनेक विभाषाएँ या बोलियां हुआ करती है। भाषा के स्थानीय भेद से प्रयोग भेद में जो अंतर पड़ता है, उसी के आधार पर विभाषा का निर्माण होता है। जैसा हमने अभी देखा है, प्रत्येक व्यक्ति की भाषा दूसरे व्यक्ति से भिन्न होती है। ऐसी स्थिति में यह असंभव है कि बहुत दूर तक भाषा की एकरूपता कायम रखी जा सके। स्वभावत: एक भाषा में भी कुछ दूरी पर भेद दिखायी देने लगता है। यह स्थानीय भेद, जो मुख्यतः भौगोलिक कारणों से प्रेरित होता है, विभाषाओं का सर्जक बनता है। उदाहरणार्थ -
खड़ी बोली - जाता हूँ।
ब्रजभाषा - जात हौं।
भोजपुरी - जात हई।
मगही - जा ही।
इन चारों वाक्यों को देखने से भी भाषा का रूप स्पष्ट हो जाता है स्थान भेद से एक ही क्रिया विभिन्न रूप धारण कर लेती है फिर भी यह ग्रुप इतने भी नहीं है कि परस्पर समझ में ना आए बोधगम्यता रहते हुए स्थानीय भेद को भी विभाषा कहते हैं। इस कसौटी पर उपरिलिखित चारों वाक्य खरे उतरते हैं। यही भेद जब इतना अधिक हो जाता है कि समझ न आये तो वह विभाषा का नहीं, भाषा का भेद बन जाता है। उदाहरणार्थ, ' जाता हूँ ' के बदले यदि 'आई गो ' कहें तो दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता। ' जाता हूँ ' समझने वाला यदि अंग्रेजी नहीं जानता तो ' आई गो ' नहीं समझ सकता। भाषा भेद और भी विभाषा भेद का अन्यतम आधार बोधगम्यता है। प्राय: विभाषाओं मे से ही कोई परिस्थिति की अनुकूलता से भाषा बन बैठती है। भाषा और विभाषा का अन्तर बहुव्यापकता और अल्पव्यापकता का है जिसके मूल में भौगोलिक सीमा काम करती है। अंग्रेजी में विभाषा को 'डायलेक्ट ' कहते हैं।
3. अपभाषा
भाषा में ही जब सामाजिक दृष्टि से ऐसे प्रयोग आ जाते हैं जो शिष्ट रुचि को अग्राह्य प्रतीत होते हैं तो उनको अपभाषा कहते हैं। अंग्रेजी में इसे स्लैंग कहते हैं। अपभाषा की निम्नलिखित विशेषताएं है- (क) शास्त्रीय आदर्शों की उपेक्षा- भाषा में शास्त्रीय आदशों जैसे शुद्धता ; श्लीलता आदि की रक्षा का आग्रह रहता है, किंतु अपभाषा में नहीं।
(ख) शब्दों के निर्माण के सिद्धांतों की उपेक्षा -भाषा में शब्दों का निर्माण कैसे होगा, इसके व्याकरण - समस्त नियम हैं। उन नियमों को ध्यान में रखकर ही शब्दों का या एक शब्द के अनेक रूपों का निर्माण होता है। अपभाषा में उन नियमों पर ध्यान नहीं दिया जाता। जैसे, टडैल या अगड़घत्त आदि शब्द किसी नियम से सिद्ध नहीं है।
(ग) भाषा के शब्दों का अपभाषा में अर्थ-विस्तार दिखता है। भाषा में जो शब्द सामान्यत: जिस रूप में प्रचलित है रहते हैं, अपभाषा में उससे हटाकर हीन अर्थ में प्रयुक्त होने लगते हैं; जैसे उसने उसकी अच्छी हजामत बनायी या मरम्मत की ; मारते- मारते कचूमर निकाल दिया ; उसने मुझे धसा दिया। कोई मक्खन लगाना उससे सीखें ; एक इसी बल पर वह कहाँ से कहाँ पहुँच गया।
(घ) अपभाषा कुछ विशेष श्रेणियों , सामाजिक वर्गों या समवयस्कों में प्रचलित रहती है अर्थात अपभाषा के प्रयोगों के लिए वर्ग- विशेष, समाज विशेष या वय - विशेष की सीमा देखी जाती है। एक खास तरह का प्रयोग इस सीमा में विशेष लोकप्रियता प्राप्त कर लेता है।
अपभाषा की इन विशेषताओं को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि उसका निर्माण शैक्षिक, सांस्कृतिक और सामाजिक तत्वों से होता है जिनमें लोग - मर्यादा और शिष्ट रूचि को प्राय: ध्यान में नहीं रखा जाता या जान-बूझकर उनकी उपेक्षा की जाती है। अपभाषा के प्रयोगों पर विचार करने से प्रयोक्ता के शैक्षिक, मानसिक स्तर आदि का आसानी से पता लग जाता है। किसी भी भाषा के अंतर्गत अपभाषा की श्रेणी में आनेवाले प्रयोगों का अध्ययन भाषाविज्ञान की दृष्टि से बड़ा उपादेय सिद्ध हो सकता है, क्योंकि उससे जीवन एवं समाज के अनेक पक्षों पर प्रकाश पड़ने की संभावना रहती है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि नवीनता, विनोद, उच्छृंखलता, संस्कारहीनता आदि अनेक कारण अपभाषा के प्रेरक हुआ करते हैं। सामान्यत: अपभाषा शिष्ट भाषा में गृहीत नहीं होती, किंतु जब कोई प्रयोग बहुत चल पड़ता है तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह शिष्ट भाषा में प्रवेश पा जाता है।
4. विशिष्ट ( व्यावसायिक ) भाषा
समाज कोई अरूप वस्तु नहीं है। व्यक्ति को जब सामाजिक प्राणी कहा जाता है तो समाज के किसी विशिष्ट रूप को ही ध्यान में रखकर। समाज में उसकी कोई - न- कोई स्थिति होती है, वह कोई- न- कोई काम करता है। व्यवसाय के अनुसार अनेक श्रेणियाँ बन जाती है; जैसे, किसान, लोहार, बढ़ई, जुलाहा, सोनार, दर्जी, कुम्हार, शिकारी, मल्लाह, डॉक्टर, वकील, अध्यापक, दुकानदार, पंडित, पुजारी, मौलवी आदि। इन सभी व्यवसायों के अलग- अलग शब्दावली होती है। यह शब्दवाली एक तरह से वैसी ही प्राविधिक या परिभाषिक हो जाती है जैसे साहित्य, दर्शन, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, भौतिकी, रसायन आदि की , अर्थात् किसी व्यवसाय की शब्दावली उसी में चलती है। आप किसी की भाषा सुनकर आसानी से निर्णय कर सकते हैं कि वह किस व्यवसाय का व्यक्ति है।
दर्जी की भाषा मौलाना आजाद की भाषा से भिन्न कुछ इस प्रकार की होती है, 'पहले कच्चा करके तब बखिया करना और आस्तीन की मोहरी नाखूनी सीना। काज बनाकर बटन भी टाँक देना।'
अधिक उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं। इन कतिपय उदाहरणों सें स्पष्ट हो गया होगा कि शिक्षा और संस्कृति के साथ व्यवसाय का भी असर भाषा पर कितना पड़ता है। जो जिस व्यवसाय मे है, वह उसकी बँघी शब्दावली से मुक्त हो सके, यह असम्भव है। कहने को ऊपर के सभी उदाहरण हिन्दी के है फिर भी इनमे परस्पर कितना अन्तर है। इन उदाहरणों की शब्दावली मे जो अन्तर है वह क्यो है ? किसी की भाषा मे अंग्रेज़ी शब्दों का बाहुल्य है तो किसी की भाषा मे संस्कृत शब्दो का और किसी की भाषा मे अंग्रेजी शब्दो का बाहुल्य है तो किसी की भाषा में संस्कृत शब्दों का और किसी की भाषा में अरबी - फारसी शब्दों का।
5. कूटभाषा
भाषा सामान्यत: अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने का माध्यम है अर्थात् भाषा का प्रयोग अभिव्यंजन के लिए होता है, किंतु भाषा का एक और उपयोग है। संसार में जितना मिथ्या - भाषण होता है, वह सब किसी- न- किसी बात को छुपाने के लिए ही। अगर छिपाना उद्देश्य नहीं होता तो मिथ्या भाषण की कोई आवश्यकता न थी और मात्रा की दृष्टि से मिथ्या - भाषण कुछ कम नहीं होता। इसलिए एक विद्वान ने कहा है कि भाषा का काम बात को बताना नहीं, छिपाना है। अलंकारशास्त्र में व्याजोक्ति या छेकापहनुति आदि अलंकार गोपन के आधार पर ही खड़े है।
सामान्य भाषा मे जहाँ बोध्यता और अबोध्यता दोनों , क्योंकि उसमे कुछ तो बताना अभीष्ट होता है और कुछ छिपाना । कूट- भाषा के दो प्रमुख प्रयोजन है - (1) मनोरंजन और (2) गोपन । कविता मे कूट - भाषा का प्रयोग होता है वह मनोरंजन के लिए ही। सुर के कूट इसके उदाहरण हैं। अनेक बार बालक या सयाने भी शब्दों को उलटकर बोलते हैं; जैसे बालक रोटी मांगते समय ' टीरो ' कहकर या भात को ' तभा ' या पानी को ' नीपा ' कहकर अपना बौद्धिक उत्कर्ष दिखाना चाहते हैं। मनोरंजन के साथ कूटभाषा का दूसरा और सम्भवत: अधिक उपयोगी पक्ष हैं किसी वस्तु का गोपन। अपराधी, चोर, विद्रोही या गुप्तचर भाषा का जो प्रयोग करते हैं वह अपनी बात छिपाने के उद्देश्य से ही। उन संकेतों से जो परिचित हैं वह तो उनका अर्थ समझ पाता है और जो अपरिचित हैं उसके लिए वे निरर्थक प्रमाणित होते हैं। उदाहरणार्थ, चोरी करने जाना चोरों के यहां ' बारात जाना ' कहा जाता है। जेल को कुछ चोर ' ससुराल ' कहते हैं। सिद्ध है कि बारात या ससुराल का जो प्रचलित अर्थ है, उससे भिन्न अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग अभिप्रेत है ; इसका एकमात्र उद्देश्य है अपने अभिप्राय को केवल उसी व्यक्ति को बताना जो आत्मीय हो।
कूटभाषा का प्रयोग कई रूपों में होता है- ( 1 ) कूटभाषा का व्यापक प्रयोग संकेतिक रूप में होता है। इसमें शब्द का प्रचलित और प्रसिद्ध अर्थ छोड़कर उसे किसी दूसरी वस्तु का संकेत मान लिया जाता है ; जैसे, चोर के लिए ' बारात ' जेल के लिए ' ससुराल '। इसी तरह ' इनकी पूरी खातिरदारी करना ' का सांकेतिक अर्थ है ' इसकी अच्छी मरम्मत करना ।' आज रत्नाकर आने वाले हैं ; उनके लिए रस का प्रबंध करो, यह वाक्य कोई चोर अपने साथी से इस उद्देश्य से कह सकता है कि आज कोई मालदार ( रत्नाकर ) आने वाला है ; उसे मारने के लिए विष ( रस ) का प्रबन्ध करना चाहिए। सेना की टुकड़ियों में इसी तरह विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न संकेत दे दिए जाते हैं। शाम का शिविर से जब सैनिक बाहर जाने लगते हैं तो उन्हें कोई संकेत दे दिया जाता है। लौटने पर उस संकेत के बोलने के बाद ही वे शिविर में घुसने की अनुमति पाते हैं। यदि ऐसा न किया जाये तो शत्रु - दल के सैनिक भी वेश बदलकर भीतर घुस आ सकते हैं ओर सारा रहस्य जान ले सकते हैं या तोड़-फोड़ कर सकते हैं। ये सैनिक संकेत प्राय: प्रतिदिन बदल दिए जाते हैं ; जैसे आज ' हंस ' रखा गया तो कल ' हाथी '। अब जितने लोग शिविर के बाहर जायेगे , वे लौटते ही पहरे के संतरी के सामने ' हंस ' या ' हाथी ' का उच्चारण करेंगे जो इस बात का सूचक होगा कि वे अपनी सेना के अंग हैं। यह कहने के बाद ही उन्हें भीतर जाने की स्वीकृति मिलती है। ये संकेत अत्यंत गुप्त रखे जाते हैं।
कूटभाषा का सांकेतिक प्रयोग समुदाय - विशेष के परस्पर समझने की चीज है। जो समुदाय इस भाषा का प्रयोग करता है वह पहले से विभिन्न वस्तुओं के लिए विभिन्न संकेत गढ़ लेता है , समझ लेता है और तब समय पर उनका प्रयोग करता है। कूटभाषा में ध्वनि या पद का सामान्यत: परिवर्तन नहीं होता, केवल शब्द - भंडार संकेतिक होता है। कभी- कभी प्रचलित शब्द को अधिक अबोध्य बनाने के लिए ध्वनि में भी परिवर्तन किया जा सकता है, लेकिन सामान्यत: शब्द- परिवर्तन से ही काम चल जाता है।
(2) कूटभाषा का दूसरा रूप वर्ण - विपर्यय में देखने को मिलता है। यह संकेतिक कूटभाषा की अपेक्षा अधिक सुगम होती है और थोड़ी बुद्धि लगाने पर समझ में आ जाती है ; जैसे पूर्वोक्त उदाहरण ' टीरो ' = रोटी, ' तभा ' = भात ; ' नीपा ' = पानी। वर्ण - विपर्ययमूलक भाषा का उपयोग गोपन और मनोरंजन दोनों के लिए होता है। अधिक गोपनीय वस्तु को वर्ण - विपर्यत के द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसमें बात खुल जाने की आशंका रहती है। गोपनीयता की रक्षा संकेतिक भाषा से ही अच्छी तरह हो पाती है। वर्ण - विपर्यय अधिकतर उत्सुकता या मनोरंजन की भावना व्यक्त की जाती है।
(3) कूटभाषा का एक प्रचलित रूप यह है कि अक्षरों के साथ किसी दूसरे अक्षर को जोड़कर उन्हें एक दूसरे से अलग कर दिया जाता है और अबोध्य बना दिया जाता है। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए किसी भी अक्षर को जोड़ा जा सकता है। मुझे याद है कि बचपन में अपने कई साथियों को मैं इस तरह की कूटभाषा का प्रयोग करते देखता था, जिसका थोड़ा बहुत अभ्यास मैंने भी किया था। किसी अक्षर के प्रयोग के अनुसार , यदि चि का प्रयोग हो तो इसे ' चिकारी ' या ट का प्रयोग हो तो ' टकारी ' आदि नामों से पुकारते थे।
(4) हमारे बचपन में एक अंकात्मक कूटभाषा प्रचलित थी। उस समय उसका प्रयोग बहुत प्रिय लगता था। अंकात्मक कूटभाषा अपेक्षाकृत अधिक कठिन होती है, वर्ण - विपर्यय या चिकारी - टकारी जैसे सुगम नहीं। वह रहस्यत्मकता मे एक प्रकार से सांकेतिक भाषा के समीप पड़ती है।
(6 ) कृत्रिम भाषा
कृत्रिम भाषा उसे कहते हैं जो स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं हुई हो बल्कि जिस गढ़कर बनाया गया हो। संसार में भाषाओं की अधिकता के कारण बोधगम्यता मे बड़ी बाधा पड़ती है और जब तक एक-दूसरे की भाषाएं ज्ञात न हों तब तक परस्पर बात करना सम्भव नहीं है। इसको लेकर राजनीतिक, वाणिज्य, व्यवसाय, भ्रमण आदि में बहुत असुविधाएँ होती है। भाषा- भेद-जनित असुविधाओं को दूर कर अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए एक सामान्य भाषा प्रस्तुत करना ही कृत्रिम भाषा के अविष्कार का उद्देश्य है। अतः चाहें तो कृत्रिम भाषा को अन्तरराष्ट्रीय भाषा भी कह सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विगत दो शताब्दियों में सैकड़ों भाषाएं बनी गयीं , किंतु उनमें अधिकतर उत्पत्ति के साथ ही गतायु हो गयीं। आज एक ही कृत्रिम भाषा जी रही है और वह है एसपेरांतो। संसार में एसपेरांतो का प्रयोग करने वालों की संख्या अस्सी लाख बतायी जाती है। यूरोप में इस भाषा को बहुत लोग शौक से सीखते हैं। कृत्रिम भाषा का उद्देश्य बहुत ऊंचा है, इसमें कोई संदेह नहीं और यदि इसको सभी लोग अपना सके तो निश्चित ही भाषा- भेद- जनित कठिनाई मिट जाएगी जो आज मनुष्य मनुष्य के बीच दीवार बनकर खड़ी है। किंतु यह लक्ष्य जितना ऊंचा है उतना ही दुरुह भी है। कृत्रिम भाषा को अपनाने में कुछ कठिनाइयाँ तो स्पष्ट है--
(1) कृत्रिम भाषा दैनिक व्यवहार के लिए ही उपयुक्त, कामचलाऊ, है। इसमें गंभीर विषयों की आलोचना- प्रत्यालोचना संभव नहीं है।
(2) कृत्रिम भाषा में साहित्य - रचना सम्भव नहीं है, कारण कि इस भाषा का संबंध मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के साथ नहीं है। हृदय के भावों, आवेगों, संवेदनों की अभिव्यक्ति निसर्ग - सिध्द भाषा में ही संभव है, किसी कृत्रिम और अपरागत भाषा में नहीं। अंग्रेजी का उदाहरण हमारे सामने है। अंग्रेज़ी का साधना में सारा जीवन व्यतीत करने वाले भी अपनी आशा- आकांक्षा अंग्रेजी में व्यक्त करने में पूर्णत: सफल नहीं हो सके। रवींद्रनाथ ठाकुर के ने जैसा कवि भी बंगला के द्वारा ही स्थायी कीर्ति का भागी बना। अंग्रेजी में लिखने की कोशिश बहुत ने की, मगर अंग्रेजी साहित्य में उनको कोई स्थान नहीं मिल पाया। इसके प्रतिकूल अपनी भाषा में लिखने वाले, भले ही उनकी अपनी भाषा की साधना अंग्रेजी की तुलना में बड़ी हल्की रही, अगर हो गये। यह इसलिए कि अंग्रेजी हमारे रक्त और मांस, हमारे हृदय और आत्मा की भाषा नहीं है। वह अमरबेल की तरह ऊपर से फैली है, अतः उसमें जीवन के रस का अभाव है। यही स्थिति एसपेरांतो को भी लेकर होगी। हिंदी, बंगला, अंग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी, आदि भाषाओं को माता के दूध के साथ पचाने वाला व्यक्ति बाद को सीखी गयी भाषा में अपने हृदय के उद्गार व्यक्त नहीं कर सकता।
(3) अपनी मातृभाषा में के प्रति प्रेम और गौरव का भाव भी एसपेरांतो के व्यापक ग्रहण में बाधक सिद्ध होगा। जिस तरह अपना देश प्यारा होता है, उसी तरह अपनी भाषा भी। उसके प्रति सहज आकर्षण और प्रेम होता है जो प्राय: पक्षपात की सीमा छूने लगता है। ऐसी स्थिति में किसी सर्वथा अपरिचित भाषा को मातृभाषा के बदले अपना लेना सरल नहीं है।
(4) भाषा- भेद को मिटाने की जिस भावना से एसपेरांतो का जन्म हुआ है वह भी आगे चलकर बाधित होगा, कारण कि जो जिस भाषा का बोलने वाला है वह एसपेरांतो की ध्वनियों का उच्चारण उसी रूप में करेगा, क्योंकि उसके संस्कार और अभ्यास वैसे ही बने हैं। उदाहरणार्थ, एसपेरांतो कहेंगे तो अंग्रेज़ ' एसपेरेंटों '। यह उच्चारण - भेद कालान्तर मे एसपेरांतो मे भी अनेक विभाषाओं के निर्माण का प्रेरक होगा, जो किसी दिन परस्पर अबोध्यता की कोटि मे पहुँच जा सकती है। इस तरह जिस लक्ष्य को ध्यान मे रखकर इस अन्तरराष्ट्रीय भाषा का निर्माण हुआ है वह कहाँ तक सिध्द होगा, यह कहना कठिन है।
7. मिश्रित भाषा
हलके-फुलके व्यापारिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेकत्र मिश्रित भाषा का उपयोग होता है। उदाहरणार्थ, पिजिन इंग्लिश को लीजिए जिसका प्रयोग चीन में होता है। पिजिन इंग्लिश में शब्द अंग्रेजी के रहते हैं किंतु ध्वनि- प्रक्रिया और व्याकरण चीनी का। यह भाषा संप्रेषण संबंधी स्थूल, प्रारम्भिक बातों तक सीमित है। किसी चीज का भाव - मोल कर लेना, कुछ खरीद लेना, कुछ बेच लेना आदि कार्य ही इसके द्वारा सिद्ध हो पाते हैं। इसमें दर्शन या विज्ञान या साहित्य की रचना संभव नहीं है। इसी तरह भूमध्यसागर के बंदरगाहों में साबीर नाम की एक भाषा का प्रयोग होता है जिसमें फ्रांसीसी, स्पेनी , इतालवी , ग्रीक और अरबी का मिश्रण है। इन भाषाओं से कुछ वस्तुओं के नाम ले लिए गए हैं और उन्हें मिलाकर एक खिचड़ी भाषा तैयार कर ली गई है जिससे सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है।
भाषा का उद्देश्य केवल अभिव्यंजन ही नहीं गोपन भी है और भौगोलिक, वैयक्तिक, व्यवसायिक आदि दृष्टियों से उसके अनेक रुप हो जाते हैं। उपयुक्त भेदों में अन्य सारे भेद भी समाहित हो जाते हैं। प्रान्तीय भाषा, राज्यभाषा, राष्ट्रभाषा आदि भेद अमान्य है, क्योंकि इनमें रूप- भेद नहीं होता। उदाहरणार्थ , राजभाषा और राष्ट्रभाषा की विभाजक रेखा क्या होगी ?
भाषाओं के संबंध में एक मौलिक तथ्य है कि न तो कोई भाषा सरल होती है न कठिन ; न अच्छी, न बुरी। सरलता - कठिनता का प्रश्न , अच्छाई- बुराई का प्रश्न अभ्यास और संस्कार से सम्बध्द है। जो भाषा आपको कठिन लगती है वह उसे कठिन नहीं लगती जिसकी वह मृतभाषा है, क्योंकि वह उसे जन्म से और सहज भाव से सीखे हुए हैं। इसी प्रकार अपनी भाषा हर आदमी को अच्छी लगती है। दोष दूसरे की भाषा में दीखते हैं, अपनी भाषा में नहीं। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपनी दृष्टि में दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सुंदर है, वैसे ही अपनी भाषा भी दूसरी भाषा की अपेक्षा अधिक पूर्ण, सरल और अच्छी मालूम पड़ती है। अतः भाषा अच्छी या बुरी नहीं होती। भाषा बुरी तब कहीं जाएगी जब उससे काम न चल सके अर्थात अभिव्यंजना समुचित रुप में न हो सके। आज अंग्रेजी को लेकर यह समस्या उठ खड़ी हुई है। बारह वर्ष सिरतोड़ परिश्रम करने पर भी शुद्ध अंग्रेजी लिखने या बोलने वाले दुर्लभ हो गए हैं। इस दृष्टि से अंग्रेजी बुरी कही जाएगी, क्योंकि हमारी अभिव्यंजना में वह साधक न होकर बाधक बन रही है।
दूसरी बात ध्यान में रखने की यह है कि भाषा का सतत विकास ही होता है। विद्वानों की दृष्टि में जो 'अपभ्रष्ट ' है वह भी भाषाविज्ञान की दृष्टि से विकास ही है। व्याकरण के मानदंडों से हट जाने पर भाषा अपभ्रष्ट ( गिरी हुई ) लगती है, किंतु भाषाविज्ञान उसे 'अपभ्रष्ट ' न कहकर ' विकसित ' कहेगा, क्योंकि वह परिवर्तन कुछ अनिवार्य कारणों से प्रेरित और नियंत्रित होता है। हम बूढ़े हो गए, इसका यह अर्थ कहां हुआ कि हम गिर गये ? यह तो विकासजनित रूप- परिवर्तन हुआ। इसी तरह यदि आज की भाषा दो सौ वर्षों के बाद बदल जाती है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह भाषा गिर गयी, बल्कि उसमें प्रकृतिक परिवर्तन हो गया जो सृष्टि का अपरिहार्य क्रम है। जैसे नदी की धारा कभी नहीं रुकती, सदा आगे बढ़ती जाती है, वैसे ही भाषा का प्रवाह भी कभी नहीं रुकता, सदा आगे बढ़ता जाती है, विकास के इस अनिवार्य प्रवाह को अपभ्रंश कहना भाषावैज्ञानिक दृष्टि से असंगत है।
वस्तुतः जितने व्यक्ति हैं, उतनी भाषाएं हैं, कारण यह है कि किन्हीं दो व्यक्तियों के बोलने का ढंग एक नहीं होता। इसका प्रमाण यह है कि अंधकार में भी किसी की वाणी सुनकर हम उसे पहचान लेते हैं। यह अन्तर केवल बोलने के ढंग से ही नहीं, उच्चारण, शब्द भंडार, यहां तक कि वाक्य विन्यास में भी देखा जाता है। साहित्य में इसी का अध्ययन शैली के अंतर्गत होता है। प्रेमचंद्र की भाषा प्रसाद से भिन्न है और पन्त की निराला से। हिंदी का प्रयोग तो यों सभी करते हैं, फिर यह अंतर क्यों ? जो इन लेखकों या कवियों की रचनाओं से परिचित है, वे दो - चार पंक्तियां पढ़ते - पढ़ते भी अन्यास कह देते हैं कि यह अमुक की भाषा है। प्रेमचंद और प्रसाद की भाषा मे किसी को भ्रम नहीं हो सकता। यह इसलिए कि उस भाषा के पीछे उनका व्यक्तित्व है व्यक्तित्व का यह प्रभाव शिक्षित व्यक्तियों की ही भाषा में नहीं, बल्कि अशिक्षितों की भाषा में भी उसी रूप में पाया जाता है। जिसका जैसा व्यक्तित्व है, उसकी भाषा उसी सांचे में ढल जाती है।
इस तथ्य को स्वीकार कर लेने पर भाषा के अनंत रूप हो जाते हैं ; वस्तुतः उसके अनंत रूप है भी। भाषा का आभिभाव व्यक्ति में होता है, इसलिए भाषा की उत्पत्ति का आधार वही है, किंतु उसका प्रेरक तत्व समाज है क्योंकि भाषा का उपयोग सामाजिक योग - क्षम के लिए किया जाता है। भाषा के वैयक्तिक और सामाजिक पक्षों की चर्चा अंशत: पहले भी हो चुकी है। भाषा के रूपों पर विचार करते समय इन दोनों पक्षों को ध्यान में रखना आवश्यक है। ये दोनों पक्ष भाषा के पूरक हैं, एक के बिना दूसरे की सत्ता ही संभव नहीं है।
प्रत्येक व्यक्ति की भाषा भिन्न होती है। यदि इस तथ्य तक ही अपने को सीमित रखें तो भाषा के भी अनंत भेद मानने होंगे। एक दृष्टि से यह सही है, किंतु सामाजिक दृष्टि से विचार न करना दृष्टि की एकांगिता का घोतक होगा।
वक्ता के भेद से भाषा के अनेक रूप हो जाते हैं। जिस प्रकार व्यक्ति की निरपेक्ष सत्ता नहीं है, उसी प्रकार उसकी भाषा की भी निरपेक्ष सत्ता नहीं है। विभिन्न दृष्टियों से देखने पर एक ही व्यक्ति विभिन्न श्रेणियों में आता है; उदाहरणार्थ , शिक्षा, संस्कृति, व्यवसाय, वातावरण, पर्यावरण, आदि के भेद से व्यक्ति की स्थिति और संस्कार में भेद पड़ता है जिसका अनिवार्य प्रभाव भाषा पर पड़ता है। अंग्रेजी पढ़ें सभी लोग एक ही भाषा का व्यवहार नहीं करते। डॉक्टर की भाषा से वकील की भाषा भिन्न होती है तो इन्जीनियर की भाषा से भाषाविज्ञानी की। स्थूल दृष्टि से देखने पर सभी अधित और शिक्षित हैं, किंतु उनके विशेषीकरण का प्रभाव उनकी भाषा में भी परिलक्षित होता है। भाषा के पार्थक्य मे उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त इतिहास, भूगोल, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति, आदि का भी पर्याप्त प्रभाव पाया जाता है। भाषा के रूपों का विचार करते समय इन सारी बातों को स्मरण रखना आवश्यक है।
भाषा के तीन रूप होते हैं- वाणी, भाषा और अधिभाषा; अर्थात भाषा की स्थिति तीन प्रकार से संभव है -- व्यक्ति में, समुदाय में, और सामान्य अमूर्त रूप में। सामान्य या अमूर्त रूप भाषा की वह व्यापकता है जिसमें भेद का अवकाश नहीं है। वहां पहुंचकर भाषा निरुपाधी हो जाती है, किंतु शेष दो व्यावहारिक हैं और उन पर विचार किया जा सकता है।
1. परिनिष्ठत भाषा
भाषा का आदर्श रूप वह है जिसमें वह एक वृहत्तर समुदाय के विचार - विनिमय का माध्यम बनती है, अर्थात उसका प्रयोग शिक्षा, शासन, और साहित्य रचना के लिए होता है। हिंदी, अंग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी इसी श्रेणी की भाषाएं हैं। भाषा के इस रूप को मानक, आदर्श या परिनिष्ठित कहते हैं। जो अंग्रेजी के ' स्टैंडर्ड ' शब्द का रूपान्तर है। परिनिष्ठित भाषा विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त और व्याकरण से नियंत्रण होती है ।
2. विभाषा ( बोली )
एक परिनिष्ठित भाषा के अंतर्गत अनेक विभाषाएँ या बोलियां हुआ करती है। भाषा के स्थानीय भेद से प्रयोग भेद में जो अंतर पड़ता है, उसी के आधार पर विभाषा का निर्माण होता है। जैसा हमने अभी देखा है, प्रत्येक व्यक्ति की भाषा दूसरे व्यक्ति से भिन्न होती है। ऐसी स्थिति में यह असंभव है कि बहुत दूर तक भाषा की एकरूपता कायम रखी जा सके। स्वभावत: एक भाषा में भी कुछ दूरी पर भेद दिखायी देने लगता है। यह स्थानीय भेद, जो मुख्यतः भौगोलिक कारणों से प्रेरित होता है, विभाषाओं का सर्जक बनता है। उदाहरणार्थ -
खड़ी बोली - जाता हूँ।
ब्रजभाषा - जात हौं।
भोजपुरी - जात हई।
मगही - जा ही।
इन चारों वाक्यों को देखने से भी भाषा का रूप स्पष्ट हो जाता है स्थान भेद से एक ही क्रिया विभिन्न रूप धारण कर लेती है फिर भी यह ग्रुप इतने भी नहीं है कि परस्पर समझ में ना आए बोधगम्यता रहते हुए स्थानीय भेद को भी विभाषा कहते हैं। इस कसौटी पर उपरिलिखित चारों वाक्य खरे उतरते हैं। यही भेद जब इतना अधिक हो जाता है कि समझ न आये तो वह विभाषा का नहीं, भाषा का भेद बन जाता है। उदाहरणार्थ, ' जाता हूँ ' के बदले यदि 'आई गो ' कहें तो दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता। ' जाता हूँ ' समझने वाला यदि अंग्रेजी नहीं जानता तो ' आई गो ' नहीं समझ सकता। भाषा भेद और भी विभाषा भेद का अन्यतम आधार बोधगम्यता है। प्राय: विभाषाओं मे से ही कोई परिस्थिति की अनुकूलता से भाषा बन बैठती है। भाषा और विभाषा का अन्तर बहुव्यापकता और अल्पव्यापकता का है जिसके मूल में भौगोलिक सीमा काम करती है। अंग्रेजी में विभाषा को 'डायलेक्ट ' कहते हैं।
3. अपभाषा
भाषा में ही जब सामाजिक दृष्टि से ऐसे प्रयोग आ जाते हैं जो शिष्ट रुचि को अग्राह्य प्रतीत होते हैं तो उनको अपभाषा कहते हैं। अंग्रेजी में इसे स्लैंग कहते हैं। अपभाषा की निम्नलिखित विशेषताएं है- (क) शास्त्रीय आदर्शों की उपेक्षा- भाषा में शास्त्रीय आदशों जैसे शुद्धता ; श्लीलता आदि की रक्षा का आग्रह रहता है, किंतु अपभाषा में नहीं।
(ख) शब्दों के निर्माण के सिद्धांतों की उपेक्षा -भाषा में शब्दों का निर्माण कैसे होगा, इसके व्याकरण - समस्त नियम हैं। उन नियमों को ध्यान में रखकर ही शब्दों का या एक शब्द के अनेक रूपों का निर्माण होता है। अपभाषा में उन नियमों पर ध्यान नहीं दिया जाता। जैसे, टडैल या अगड़घत्त आदि शब्द किसी नियम से सिद्ध नहीं है।
(ग) भाषा के शब्दों का अपभाषा में अर्थ-विस्तार दिखता है। भाषा में जो शब्द सामान्यत: जिस रूप में प्रचलित है रहते हैं, अपभाषा में उससे हटाकर हीन अर्थ में प्रयुक्त होने लगते हैं; जैसे उसने उसकी अच्छी हजामत बनायी या मरम्मत की ; मारते- मारते कचूमर निकाल दिया ; उसने मुझे धसा दिया। कोई मक्खन लगाना उससे सीखें ; एक इसी बल पर वह कहाँ से कहाँ पहुँच गया।
(घ) अपभाषा कुछ विशेष श्रेणियों , सामाजिक वर्गों या समवयस्कों में प्रचलित रहती है अर्थात अपभाषा के प्रयोगों के लिए वर्ग- विशेष, समाज विशेष या वय - विशेष की सीमा देखी जाती है। एक खास तरह का प्रयोग इस सीमा में विशेष लोकप्रियता प्राप्त कर लेता है।
अपभाषा की इन विशेषताओं को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि उसका निर्माण शैक्षिक, सांस्कृतिक और सामाजिक तत्वों से होता है जिनमें लोग - मर्यादा और शिष्ट रूचि को प्राय: ध्यान में नहीं रखा जाता या जान-बूझकर उनकी उपेक्षा की जाती है। अपभाषा के प्रयोगों पर विचार करने से प्रयोक्ता के शैक्षिक, मानसिक स्तर आदि का आसानी से पता लग जाता है। किसी भी भाषा के अंतर्गत अपभाषा की श्रेणी में आनेवाले प्रयोगों का अध्ययन भाषाविज्ञान की दृष्टि से बड़ा उपादेय सिद्ध हो सकता है, क्योंकि उससे जीवन एवं समाज के अनेक पक्षों पर प्रकाश पड़ने की संभावना रहती है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि नवीनता, विनोद, उच्छृंखलता, संस्कारहीनता आदि अनेक कारण अपभाषा के प्रेरक हुआ करते हैं। सामान्यत: अपभाषा शिष्ट भाषा में गृहीत नहीं होती, किंतु जब कोई प्रयोग बहुत चल पड़ता है तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह शिष्ट भाषा में प्रवेश पा जाता है।
4. विशिष्ट ( व्यावसायिक ) भाषा
समाज कोई अरूप वस्तु नहीं है। व्यक्ति को जब सामाजिक प्राणी कहा जाता है तो समाज के किसी विशिष्ट रूप को ही ध्यान में रखकर। समाज में उसकी कोई - न- कोई स्थिति होती है, वह कोई- न- कोई काम करता है। व्यवसाय के अनुसार अनेक श्रेणियाँ बन जाती है; जैसे, किसान, लोहार, बढ़ई, जुलाहा, सोनार, दर्जी, कुम्हार, शिकारी, मल्लाह, डॉक्टर, वकील, अध्यापक, दुकानदार, पंडित, पुजारी, मौलवी आदि। इन सभी व्यवसायों के अलग- अलग शब्दावली होती है। यह शब्दवाली एक तरह से वैसी ही प्राविधिक या परिभाषिक हो जाती है जैसे साहित्य, दर्शन, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, भौतिकी, रसायन आदि की , अर्थात् किसी व्यवसाय की शब्दावली उसी में चलती है। आप किसी की भाषा सुनकर आसानी से निर्णय कर सकते हैं कि वह किस व्यवसाय का व्यक्ति है।
दर्जी की भाषा मौलाना आजाद की भाषा से भिन्न कुछ इस प्रकार की होती है, 'पहले कच्चा करके तब बखिया करना और आस्तीन की मोहरी नाखूनी सीना। काज बनाकर बटन भी टाँक देना।'
अधिक उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं। इन कतिपय उदाहरणों सें स्पष्ट हो गया होगा कि शिक्षा और संस्कृति के साथ व्यवसाय का भी असर भाषा पर कितना पड़ता है। जो जिस व्यवसाय मे है, वह उसकी बँघी शब्दावली से मुक्त हो सके, यह असम्भव है। कहने को ऊपर के सभी उदाहरण हिन्दी के है फिर भी इनमे परस्पर कितना अन्तर है। इन उदाहरणों की शब्दावली मे जो अन्तर है वह क्यो है ? किसी की भाषा मे अंग्रेज़ी शब्दों का बाहुल्य है तो किसी की भाषा मे संस्कृत शब्दो का और किसी की भाषा मे अंग्रेजी शब्दो का बाहुल्य है तो किसी की भाषा में संस्कृत शब्दों का और किसी की भाषा में अरबी - फारसी शब्दों का।
5. कूटभाषा
भाषा सामान्यत: अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने का माध्यम है अर्थात् भाषा का प्रयोग अभिव्यंजन के लिए होता है, किंतु भाषा का एक और उपयोग है। संसार में जितना मिथ्या - भाषण होता है, वह सब किसी- न- किसी बात को छुपाने के लिए ही। अगर छिपाना उद्देश्य नहीं होता तो मिथ्या भाषण की कोई आवश्यकता न थी और मात्रा की दृष्टि से मिथ्या - भाषण कुछ कम नहीं होता। इसलिए एक विद्वान ने कहा है कि भाषा का काम बात को बताना नहीं, छिपाना है। अलंकारशास्त्र में व्याजोक्ति या छेकापहनुति आदि अलंकार गोपन के आधार पर ही खड़े है।
सामान्य भाषा मे जहाँ बोध्यता और अबोध्यता दोनों , क्योंकि उसमे कुछ तो बताना अभीष्ट होता है और कुछ छिपाना । कूट- भाषा के दो प्रमुख प्रयोजन है - (1) मनोरंजन और (2) गोपन । कविता मे कूट - भाषा का प्रयोग होता है वह मनोरंजन के लिए ही। सुर के कूट इसके उदाहरण हैं। अनेक बार बालक या सयाने भी शब्दों को उलटकर बोलते हैं; जैसे बालक रोटी मांगते समय ' टीरो ' कहकर या भात को ' तभा ' या पानी को ' नीपा ' कहकर अपना बौद्धिक उत्कर्ष दिखाना चाहते हैं। मनोरंजन के साथ कूटभाषा का दूसरा और सम्भवत: अधिक उपयोगी पक्ष हैं किसी वस्तु का गोपन। अपराधी, चोर, विद्रोही या गुप्तचर भाषा का जो प्रयोग करते हैं वह अपनी बात छिपाने के उद्देश्य से ही। उन संकेतों से जो परिचित हैं वह तो उनका अर्थ समझ पाता है और जो अपरिचित हैं उसके लिए वे निरर्थक प्रमाणित होते हैं। उदाहरणार्थ, चोरी करने जाना चोरों के यहां ' बारात जाना ' कहा जाता है। जेल को कुछ चोर ' ससुराल ' कहते हैं। सिद्ध है कि बारात या ससुराल का जो प्रचलित अर्थ है, उससे भिन्न अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग अभिप्रेत है ; इसका एकमात्र उद्देश्य है अपने अभिप्राय को केवल उसी व्यक्ति को बताना जो आत्मीय हो।
कूटभाषा का प्रयोग कई रूपों में होता है- ( 1 ) कूटभाषा का व्यापक प्रयोग संकेतिक रूप में होता है। इसमें शब्द का प्रचलित और प्रसिद्ध अर्थ छोड़कर उसे किसी दूसरी वस्तु का संकेत मान लिया जाता है ; जैसे, चोर के लिए ' बारात ' जेल के लिए ' ससुराल '। इसी तरह ' इनकी पूरी खातिरदारी करना ' का सांकेतिक अर्थ है ' इसकी अच्छी मरम्मत करना ।' आज रत्नाकर आने वाले हैं ; उनके लिए रस का प्रबंध करो, यह वाक्य कोई चोर अपने साथी से इस उद्देश्य से कह सकता है कि आज कोई मालदार ( रत्नाकर ) आने वाला है ; उसे मारने के लिए विष ( रस ) का प्रबन्ध करना चाहिए। सेना की टुकड़ियों में इसी तरह विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न संकेत दे दिए जाते हैं। शाम का शिविर से जब सैनिक बाहर जाने लगते हैं तो उन्हें कोई संकेत दे दिया जाता है। लौटने पर उस संकेत के बोलने के बाद ही वे शिविर में घुसने की अनुमति पाते हैं। यदि ऐसा न किया जाये तो शत्रु - दल के सैनिक भी वेश बदलकर भीतर घुस आ सकते हैं ओर सारा रहस्य जान ले सकते हैं या तोड़-फोड़ कर सकते हैं। ये सैनिक संकेत प्राय: प्रतिदिन बदल दिए जाते हैं ; जैसे आज ' हंस ' रखा गया तो कल ' हाथी '। अब जितने लोग शिविर के बाहर जायेगे , वे लौटते ही पहरे के संतरी के सामने ' हंस ' या ' हाथी ' का उच्चारण करेंगे जो इस बात का सूचक होगा कि वे अपनी सेना के अंग हैं। यह कहने के बाद ही उन्हें भीतर जाने की स्वीकृति मिलती है। ये संकेत अत्यंत गुप्त रखे जाते हैं।
कूटभाषा का सांकेतिक प्रयोग समुदाय - विशेष के परस्पर समझने की चीज है। जो समुदाय इस भाषा का प्रयोग करता है वह पहले से विभिन्न वस्तुओं के लिए विभिन्न संकेत गढ़ लेता है , समझ लेता है और तब समय पर उनका प्रयोग करता है। कूटभाषा में ध्वनि या पद का सामान्यत: परिवर्तन नहीं होता, केवल शब्द - भंडार संकेतिक होता है। कभी- कभी प्रचलित शब्द को अधिक अबोध्य बनाने के लिए ध्वनि में भी परिवर्तन किया जा सकता है, लेकिन सामान्यत: शब्द- परिवर्तन से ही काम चल जाता है।
(2) कूटभाषा का दूसरा रूप वर्ण - विपर्यय में देखने को मिलता है। यह संकेतिक कूटभाषा की अपेक्षा अधिक सुगम होती है और थोड़ी बुद्धि लगाने पर समझ में आ जाती है ; जैसे पूर्वोक्त उदाहरण ' टीरो ' = रोटी, ' तभा ' = भात ; ' नीपा ' = पानी। वर्ण - विपर्ययमूलक भाषा का उपयोग गोपन और मनोरंजन दोनों के लिए होता है। अधिक गोपनीय वस्तु को वर्ण - विपर्यत के द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसमें बात खुल जाने की आशंका रहती है। गोपनीयता की रक्षा संकेतिक भाषा से ही अच्छी तरह हो पाती है। वर्ण - विपर्यय अधिकतर उत्सुकता या मनोरंजन की भावना व्यक्त की जाती है।
(3) कूटभाषा का एक प्रचलित रूप यह है कि अक्षरों के साथ किसी दूसरे अक्षर को जोड़कर उन्हें एक दूसरे से अलग कर दिया जाता है और अबोध्य बना दिया जाता है। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए किसी भी अक्षर को जोड़ा जा सकता है। मुझे याद है कि बचपन में अपने कई साथियों को मैं इस तरह की कूटभाषा का प्रयोग करते देखता था, जिसका थोड़ा बहुत अभ्यास मैंने भी किया था। किसी अक्षर के प्रयोग के अनुसार , यदि चि का प्रयोग हो तो इसे ' चिकारी ' या ट का प्रयोग हो तो ' टकारी ' आदि नामों से पुकारते थे।
(4) हमारे बचपन में एक अंकात्मक कूटभाषा प्रचलित थी। उस समय उसका प्रयोग बहुत प्रिय लगता था। अंकात्मक कूटभाषा अपेक्षाकृत अधिक कठिन होती है, वर्ण - विपर्यय या चिकारी - टकारी जैसे सुगम नहीं। वह रहस्यत्मकता मे एक प्रकार से सांकेतिक भाषा के समीप पड़ती है।
(6 ) कृत्रिम भाषा
कृत्रिम भाषा उसे कहते हैं जो स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं हुई हो बल्कि जिस गढ़कर बनाया गया हो। संसार में भाषाओं की अधिकता के कारण बोधगम्यता मे बड़ी बाधा पड़ती है और जब तक एक-दूसरे की भाषाएं ज्ञात न हों तब तक परस्पर बात करना सम्भव नहीं है। इसको लेकर राजनीतिक, वाणिज्य, व्यवसाय, भ्रमण आदि में बहुत असुविधाएँ होती है। भाषा- भेद-जनित असुविधाओं को दूर कर अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए एक सामान्य भाषा प्रस्तुत करना ही कृत्रिम भाषा के अविष्कार का उद्देश्य है। अतः चाहें तो कृत्रिम भाषा को अन्तरराष्ट्रीय भाषा भी कह सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विगत दो शताब्दियों में सैकड़ों भाषाएं बनी गयीं , किंतु उनमें अधिकतर उत्पत्ति के साथ ही गतायु हो गयीं। आज एक ही कृत्रिम भाषा जी रही है और वह है एसपेरांतो। संसार में एसपेरांतो का प्रयोग करने वालों की संख्या अस्सी लाख बतायी जाती है। यूरोप में इस भाषा को बहुत लोग शौक से सीखते हैं। कृत्रिम भाषा का उद्देश्य बहुत ऊंचा है, इसमें कोई संदेह नहीं और यदि इसको सभी लोग अपना सके तो निश्चित ही भाषा- भेद- जनित कठिनाई मिट जाएगी जो आज मनुष्य मनुष्य के बीच दीवार बनकर खड़ी है। किंतु यह लक्ष्य जितना ऊंचा है उतना ही दुरुह भी है। कृत्रिम भाषा को अपनाने में कुछ कठिनाइयाँ तो स्पष्ट है--
(1) कृत्रिम भाषा दैनिक व्यवहार के लिए ही उपयुक्त, कामचलाऊ, है। इसमें गंभीर विषयों की आलोचना- प्रत्यालोचना संभव नहीं है।
(2) कृत्रिम भाषा में साहित्य - रचना सम्भव नहीं है, कारण कि इस भाषा का संबंध मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के साथ नहीं है। हृदय के भावों, आवेगों, संवेदनों की अभिव्यक्ति निसर्ग - सिध्द भाषा में ही संभव है, किसी कृत्रिम और अपरागत भाषा में नहीं। अंग्रेजी का उदाहरण हमारे सामने है। अंग्रेज़ी का साधना में सारा जीवन व्यतीत करने वाले भी अपनी आशा- आकांक्षा अंग्रेजी में व्यक्त करने में पूर्णत: सफल नहीं हो सके। रवींद्रनाथ ठाकुर के ने जैसा कवि भी बंगला के द्वारा ही स्थायी कीर्ति का भागी बना। अंग्रेजी में लिखने की कोशिश बहुत ने की, मगर अंग्रेजी साहित्य में उनको कोई स्थान नहीं मिल पाया। इसके प्रतिकूल अपनी भाषा में लिखने वाले, भले ही उनकी अपनी भाषा की साधना अंग्रेजी की तुलना में बड़ी हल्की रही, अगर हो गये। यह इसलिए कि अंग्रेजी हमारे रक्त और मांस, हमारे हृदय और आत्मा की भाषा नहीं है। वह अमरबेल की तरह ऊपर से फैली है, अतः उसमें जीवन के रस का अभाव है। यही स्थिति एसपेरांतो को भी लेकर होगी। हिंदी, बंगला, अंग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी, आदि भाषाओं को माता के दूध के साथ पचाने वाला व्यक्ति बाद को सीखी गयी भाषा में अपने हृदय के उद्गार व्यक्त नहीं कर सकता।
(3) अपनी मातृभाषा में के प्रति प्रेम और गौरव का भाव भी एसपेरांतो के व्यापक ग्रहण में बाधक सिद्ध होगा। जिस तरह अपना देश प्यारा होता है, उसी तरह अपनी भाषा भी। उसके प्रति सहज आकर्षण और प्रेम होता है जो प्राय: पक्षपात की सीमा छूने लगता है। ऐसी स्थिति में किसी सर्वथा अपरिचित भाषा को मातृभाषा के बदले अपना लेना सरल नहीं है।
(4) भाषा- भेद को मिटाने की जिस भावना से एसपेरांतो का जन्म हुआ है वह भी आगे चलकर बाधित होगा, कारण कि जो जिस भाषा का बोलने वाला है वह एसपेरांतो की ध्वनियों का उच्चारण उसी रूप में करेगा, क्योंकि उसके संस्कार और अभ्यास वैसे ही बने हैं। उदाहरणार्थ, एसपेरांतो कहेंगे तो अंग्रेज़ ' एसपेरेंटों '। यह उच्चारण - भेद कालान्तर मे एसपेरांतो मे भी अनेक विभाषाओं के निर्माण का प्रेरक होगा, जो किसी दिन परस्पर अबोध्यता की कोटि मे पहुँच जा सकती है। इस तरह जिस लक्ष्य को ध्यान मे रखकर इस अन्तरराष्ट्रीय भाषा का निर्माण हुआ है वह कहाँ तक सिध्द होगा, यह कहना कठिन है।
7. मिश्रित भाषा
हलके-फुलके व्यापारिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेकत्र मिश्रित भाषा का उपयोग होता है। उदाहरणार्थ, पिजिन इंग्लिश को लीजिए जिसका प्रयोग चीन में होता है। पिजिन इंग्लिश में शब्द अंग्रेजी के रहते हैं किंतु ध्वनि- प्रक्रिया और व्याकरण चीनी का। यह भाषा संप्रेषण संबंधी स्थूल, प्रारम्भिक बातों तक सीमित है। किसी चीज का भाव - मोल कर लेना, कुछ खरीद लेना, कुछ बेच लेना आदि कार्य ही इसके द्वारा सिद्ध हो पाते हैं। इसमें दर्शन या विज्ञान या साहित्य की रचना संभव नहीं है। इसी तरह भूमध्यसागर के बंदरगाहों में साबीर नाम की एक भाषा का प्रयोग होता है जिसमें फ्रांसीसी, स्पेनी , इतालवी , ग्रीक और अरबी का मिश्रण है। इन भाषाओं से कुछ वस्तुओं के नाम ले लिए गए हैं और उन्हें मिलाकर एक खिचड़ी भाषा तैयार कर ली गई है जिससे सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है।
भाषा का उद्देश्य केवल अभिव्यंजन ही नहीं गोपन भी है और भौगोलिक, वैयक्तिक, व्यवसायिक आदि दृष्टियों से उसके अनेक रुप हो जाते हैं। उपयुक्त भेदों में अन्य सारे भेद भी समाहित हो जाते हैं। प्रान्तीय भाषा, राज्यभाषा, राष्ट्रभाषा आदि भेद अमान्य है, क्योंकि इनमें रूप- भेद नहीं होता। उदाहरणार्थ , राजभाषा और राष्ट्रभाषा की विभाजक रेखा क्या होगी ?
भाषाओं के संबंध में एक मौलिक तथ्य है कि न तो कोई भाषा सरल होती है न कठिन ; न अच्छी, न बुरी। सरलता - कठिनता का प्रश्न , अच्छाई- बुराई का प्रश्न अभ्यास और संस्कार से सम्बध्द है। जो भाषा आपको कठिन लगती है वह उसे कठिन नहीं लगती जिसकी वह मृतभाषा है, क्योंकि वह उसे जन्म से और सहज भाव से सीखे हुए हैं। इसी प्रकार अपनी भाषा हर आदमी को अच्छी लगती है। दोष दूसरे की भाषा में दीखते हैं, अपनी भाषा में नहीं। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपनी दृष्टि में दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सुंदर है, वैसे ही अपनी भाषा भी दूसरी भाषा की अपेक्षा अधिक पूर्ण, सरल और अच्छी मालूम पड़ती है। अतः भाषा अच्छी या बुरी नहीं होती। भाषा बुरी तब कहीं जाएगी जब उससे काम न चल सके अर्थात अभिव्यंजना समुचित रुप में न हो सके। आज अंग्रेजी को लेकर यह समस्या उठ खड़ी हुई है। बारह वर्ष सिरतोड़ परिश्रम करने पर भी शुद्ध अंग्रेजी लिखने या बोलने वाले दुर्लभ हो गए हैं। इस दृष्टि से अंग्रेजी बुरी कही जाएगी, क्योंकि हमारी अभिव्यंजना में वह साधक न होकर बाधक बन रही है।
दूसरी बात ध्यान में रखने की यह है कि भाषा का सतत विकास ही होता है। विद्वानों की दृष्टि में जो 'अपभ्रष्ट ' है वह भी भाषाविज्ञान की दृष्टि से विकास ही है। व्याकरण के मानदंडों से हट जाने पर भाषा अपभ्रष्ट ( गिरी हुई ) लगती है, किंतु भाषाविज्ञान उसे 'अपभ्रष्ट ' न कहकर ' विकसित ' कहेगा, क्योंकि वह परिवर्तन कुछ अनिवार्य कारणों से प्रेरित और नियंत्रित होता है। हम बूढ़े हो गए, इसका यह अर्थ कहां हुआ कि हम गिर गये ? यह तो विकासजनित रूप- परिवर्तन हुआ। इसी तरह यदि आज की भाषा दो सौ वर्षों के बाद बदल जाती है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह भाषा गिर गयी, बल्कि उसमें प्रकृतिक परिवर्तन हो गया जो सृष्टि का अपरिहार्य क्रम है। जैसे नदी की धारा कभी नहीं रुकती, सदा आगे बढ़ती जाती है, वैसे ही भाषा का प्रवाह भी कभी नहीं रुकता, सदा आगे बढ़ता जाती है, विकास के इस अनिवार्य प्रवाह को अपभ्रंश कहना भाषावैज्ञानिक दृष्टि से असंगत है।
Hindi bhasha ke kitne roop h
ReplyDeleteभाषा के दो ही रूप होते हैं, लिखित और मौखिक।
Deleteदो ही रुप है भाषा के -मौखिक और लिखित
Deleteभाषा के कुल 9 रूप है
Deleteऔर प्रकार 2 होते है
भाषा के मुख्य रूप से तीन रूप होते हैं- लिखित , मौखिक, सांकेतिक .
DeleteSo cute
ReplyDeleteNice jankari
ReplyDeleteTumari jay ho
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