भाषाओं का वर्गीकरण
विभिन्न भाषाओं को साधारण दृष्टि से देखने से इस बात का अनुभव होता है कि उनमें परस्पर कुछ बातों में समानता और कुछ में विभिन्नता होती है। समानता दो तरह की हो सकती है-- एक पदरचना की और दूसरा अर्थतत्वों की। उदाहरण के लिए--करना, जाना, खाना, पीना, में समानता इस बात की है की सब में ना प्रत्यय लगा हुआ है जो एक ही संबंधतत्व का बोध कराता है। दूसरी और करना,करता, करेगा, करा, करें, आदि में संबंधतत्व की विभिन्नता है पर अर्थतत्व की समानता है। केवल पदरचना अर्थात संबंधतत्व की समानता पर निर्भर भाषाओं का वर्गीकरण आकृति मूलक वर्गीकरण कहलाता है, दूसरा जिसमें आकृति मूलक समानता के अलावा अर्थतत्व की भी समानता रहती है इतिहासिक या पारिवारिक वर्गीकरण कहा जाता है।
आकृतिमूलक वर्गीकरण
आकृति मूलक वर्गीकरण के हिसाब से, पहले भाषाएं दो वर्गों में बांटी जाती है-- अयोगात्मक और योगात्मक । योगात्मक भाषा उसे कहते हैं, जिसमें हर शब्द अलग- अलग अपनी सत्ता रखता है, उसमे दूसरे शब्दों के कारण कोई विकार या परिवर्तन नहीं होता। प्रत्येक शब्द की अलग-अलग संबंधतत्व या अर्थतत्व को व्यक्त करने की, शक्ति होती है। और उन शब्दों का परस्पर संबंध केवल वाक्य में उनके स्थान से मालूम होता है। यदि हिंदी से ऐसे वाक्य का उदाहरण दें तो इस तरह के वाक्य होंगे -- गोविन्द राम को खिलाता है, राम गोविन्द को खिलाता है। इन दोनों वाक्यों में प्रत्येक शब्द की अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता है, और परस्पर संबंध वाक्य में पदक्रम से ही मालूम होता है। पहले वाक्य के गोविन्द और राम का स्थान उलट देने से परस्पर संबंध भी उलट गया, पर पदों में कोई विकार नहीं हुआ। अयोगात्मक भाषाओं का सर्वोत्तम उदाहरण चीनी भाषाओं में मिलता है। इनमें हर एक शब्द की अलग-अलग स्थिति रहती है, किसी के प्रभाव से दूसरे में परिवर्तन नहीं होता और उन शब्दों का परस्पर संबंध पदक्रम में जान पड़ता है। कोई शब्द संज्ञा है या क्रिया या विशेषण यह सब वाक्य में प्रयोग में आने से ही मालूम होता है, अन्यथा नहीं। कोई ऐसा शब्द, जिसकी अर्थतत्व और संबंधतत्व दोनों को बताने की शक्ति है, किस तत्व को सिद्ध करता है यह भी पदक्रम से जाना जाता है। न्गो त नि का अर्थ है, तुझे मारता हूं , पर नि त न्गो का अर्थ हुआ तू तुझे मारता है।
श्लिष्ट उन योगात्मक भाषाओं को कहते हैं, जिनमें संबंधतत्व को जोड़ने के कारण अर्थतत्व वाले भाग में भी कुछ विकार उत्पन्न हो जाता है। तथापि संबंधतत्व की झलक अलग मालूम पड़ती है; जैसे- संस्कृत वेद, नीति, इतिहास, से वैदिक, नैतिक, ऐतिहासिक। स्पष्ट ही यहाँ इक जोड़ा गया है पर परिणामस्वरुप वेद आदि शब्दों में भी विकार आ गया। श्लिष्ट भाषाओं के भी दो विभाग किए जाते हैं-- एक ऐसे जिनमें जोड़े हुए भाग (ध्वनियां) मूल (अर्थतत्व) के बीच में घुल मिलकर रहते हैं और दूसरी ऐसी जिनमें जोड़े हुए भाग प्रधानत: मूल भाग के बाद आते हैं। अरबी आदि समी परिवार की भाषाएं प्रथम विभाग की उदाहरण स्वरूप हैं और संस्कृत आदि प्राचीन आर्यभाषाएं दूसरे की। प्रश्लिष्ट भाषा उसे कहेंगे जिसमें योग इस प्रकार हुआ है कि संबंधतत्व को अर्थतत्व से अलग कर पाना असंभव सा है, जैसे- संस्कृत के शिशु और ऋजु शब्दों से बने शैशव और आर्जव शब्द। प्राचीन आर्यभाषाओं की शब्दावली में कुछ अंश इसी वर्ग का है। प्रश्लिष्ट भाषाओं में न केवल एक अर्थतत्व का और एक या अनेक संबंधतत्व का योग होता है बल्कि एक से अधिक अर्थतत्वों का समास की प्रक्रिया से योग हो सकता है, जैसे- सं० राजपुत्र: राजपुत्रगण: राजपुत्रगणविजय:। प्रश्लिष्ट भाषाओं में कभी- कभी पूरा वाक्य ही जुड़- जुड़ा कर एक शब्द बन जाता है। जैसे- ग्रीनलैड की भाषा में अउलिसरिअतोंर (वह मछली मारने के लिए जाने की जल्दी करता है ) में अउलिसर ( मछली मारना ) पेअतोंर ( किसी काम में लगना) और पेन्नुसुअपोंक (वह जल्दी करता है ) इन तीन का सम्मिश्रण है। अमरीका महाद्वीप के मूल निवासियों की भाषाएं अधिकतर इसी तरह की है।भाषाओं का आकृतिमूलक वर्गीकरण विभिन्न भाषाओं में किसी एक लक्षण की प्रधानता पर ( न कि संपूर्णता पर ) निर्भर है। अंग्रेजी और हिन्दी मुख्य रूप से अयोगात्मक भाषाएं हैं, चीनी इनसे भी अधिक अयोगात्मक है। तुर्की काफिर कन्नड़ आदि अश्लिष्ट योगात्मक है पर इनमें भी कहीं-कहीं श्लिष्ट के लक्षण दिखाई पड़ते हैं- यजमक में दोनों भागों में - अ- किन्तु सेव - मेक में दोनों भागों में ए- सेवकन मे आल् जोड़ने से न -कन्न आदि विकार श्लिष्ट के लक्षण हैं। इसी प्रकार पालीनेशी भाषाएं मुख्यरूप से अश्लिष्ट योगात्मक है पर कुछ लक्षण अयोगात्मक दिखाई देते हैं। वास्क योगात्मक अश्लिष्ट भाषा है पर कुछ अंश प्रश्लिष्ट दिखाई पड़ते हैं। यही हाल बांटू भाषाओं का है। संस्कृत में श्लिष्ट और प्रश्लिष्ट दोनों अंश मिलते हैं। जिन भाषाओं का इतिहास मालूम है, उनसे पता चलता है कि कल जो भाषा श्लिष्ट थी वही आज कालांतर में अयोगात्मक हो चली है। संस्कृत से विकसित हिन्दी आदि आधुनिक भाषाएं उदाहरणस्वरूप है। चीनी भाषाओं में संबंधतत्व सूचक शब्द किसी समय पूरे अर्थतत्व थे यह अनुमान किया जाता है। परसर्ग के रूप में प्रयोग में आने वाले शब्द ( में का आदि ) पूर्णकाल में अर्थ पूर्ण ( मध्य, कृत आदि ) शब्द थे यह तो स्पष्ट ही है। संस्कृत के क्रिया पदों में ति -सि -मि आदि प्रत्यय वस्तुतः पूर्वकाल के सर्वनामों के अंश है यह निश्चित प्राय: भाषाविज्ञानियों ने स्वीकृत किया है। स्वतंत्र शब्द कालांतर में प्रत्यय का रूप धारण कर लेते है इस बात के प्रचुर उदाहरण अन्य भाषाओं में भी मिलते है। इस प्रकार अनुमान है कि प्रश्लिष्ट से श्लिष्ट, उससे अश्लिष्ट योगात्मक और अंत मे अयोगात्मक अवस्था आती है। और फिर अयोगात्मक से अश्लिष्ट योगात्मक , उससे श्लिष्ट और फिर प्रश्लिष्ट अवस्था आती है। अनुमान है कि कालचक्र मे भाषा का विकास इसी क्रम मे होती आ रहा है। वर्तमान सृष्टि की प्रारंभिक भाषा प्रश्लिष्ट थी या अयोगात्मक इसका निश्चय करना साक्षी प्रमाणो के अभाव में नितान्त असंभव है। मैक्समूलर का यह अनुमान कि आदिम आर्य केवल धातुओं का उच्चरण कर विचार विनिमय करता था उपहासास्पद ही साबित हुआ ।
( ख ) इतिहासिक वर्गीकरण
दो भाषाओं के बीच की समानता की जांच करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इतिहासिक संबंध होने के लिए शब्दों की तद्रूपता( एकरूपता ) नहीं बल्कि समानता चाहिए। संस्कृत और हिंदी का संबंध पत्ता, गया, हाथ, पांच, राय, पूत, आदि शब्दों से सिद्ध हो सकता है न कि पत्र, गत, हस्त, पक्ष, राजा, पुत्र आदि से जिनको हिंदी में ज्यों संस्कृत से ले लिया है। हर एक भाषा अपने पास पड़ोस की भाषाओं से अथवा अपनी पूर्ववती साहित्यक भाषाओं से शब्द अपनी जरूरत के हिसाब से लिया ही करती है। फारसी में बहुत से शब्द ज्यों के त्यों अरबी से ले लिए गए हैं, चीनी से जापानी में फारसी अरबी से उर्दू में, और हिंदी बंगाली आदि आधुनिक आर्यभाषाओं में ही नहीं, तेलुगु तमिल कन्नड़ आदि द्राविड़ भाषाओं में भी संस्कृत से लिए हुए पाए जाते हैं। हिंदी, बंगाली, मराठी आदि भी परस्पर एक दूसरे से शब्दों का लेनदेन किए हुए हैं।
शब्दों की समानता मिलने पर, ऐसे शब्द जो तत्सम या अर्थतत्सम हो उनको अलग कर देना चाहिए क्योंकि वे तो निश्चित ही मांगे हुए हैं। इतिहासिक संबंध के लिए तद्भव शब्द ही विशेष उपयोगी होते हैं। व्याकरण से भी अधिक महत्व की चीज ध्वनिसमूह है। जब दो भाषाएं एक दूसरे के निकट आती हैं और एक भाषा के शब्द दूसरी में जाते हैं तब अपरिचित ध्वनियों और संयुक्तक्षरों के लिए उसी प्रकार की देशी ध्वनियां और संयुक्ताक्षर स्थान कर लेते हैं। फारसी के गरीब, कागज, थबूत, खसम, मजदूर, मजह, मजा, मालूम, फलाना, बखत विदेशी ध्वनियों के स्थान पर स्वदेशी ध्वनियों को ही बिठाकर बने हैं। अंग्रेजी संयुक्तक्षरों की जगह हिंदी के प्रचलित संयुक्तक्षरों को रखकर बनाए गए हैं। कोई भी भाषा दूसरी के ध्वनि समूह को ज्यों का त्यों नहीं लेती है। यदि विजित वर्ग की भाषा के स्थान पर अधिकांश में विजयी वर्ग की भाषा आ बैठे, तब ऐसा हो सकता है कि विजयी वर्ग का भाषा में कोई कोई ध्वनि विकास जो विजित वर्ग की भाषा के अनुकूल हो द्रुतगति से होने लगता है।
ध्वनि -साम्य और ध्वनि - भिन्नता इतिहासिक संबंध के लिए प्राय: स्थानिक समीपता से विचार उठता है, शब्दों की समता से विचार को पुष्टि मिलती है, व्याकरण - साम्य से विचार वादरूप हो जाता है, और यदि ध्वनि- साम्य भी निश्चित हो जाय तो संबंध पूरी तरह निश्चयकोटि को पहुंच जाता है। यदि व्याकरण साम्य न मिलता हो तो विचार विचारकोटि से ऊपर नहीं उठ पाता। यह असंभव नहीं कि कोई भाषा विकसित होते होते इतनी भिन्न हो जाए कि व्याकरण की समानता न प्राप्त हो, और दोनों भाषाओं की मध्यवर्ती अवस्थाओं के सूचक लेख भी न मिले।
Background white aur letter black hona chahiye
ReplyDeleteहिंदी भाषा का वर्गीकरण
ReplyDeleteSupob
ReplyDeleteSansar ko vashako bargikaran ko adhar ma dristith charcha garnu hos
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteअप्रतिम छोटे ❤
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