नाटक- भारत में नाटक साहित्य की एक ऐसी विधा है, जिसकी लम्बी परम्परा पाई जाती है। भारत में ही नाट्यशस्त्र की रचना सबसे पहले हुई थी। यहाँ नाट्यशस्त्र की अनेक आचार्य हुऐ, जिन्होंने नाटक पर बड़े विस्तार और गमभीरता से इस विधा पर विचार किया है। इन में भरत, धनंजय, रामचन्द्र, गुणचन्द्र, अभिनाव गुप्त, विश्वनाथ आदि के नाम अधिक प्रसिद्ध है। नाटक की परिभाषा- आचार्य धनंजय ने नाटक की परिभाषा इस प्रकार बताई है- अवस्था की अनुकृति नाटक है, यह परिभाषा सातर्क है, व्यवारिक और उपयोगी है। नाटक अनुकरण तत्व की प्रधानता है, साहित्य की सभी विधाओं में नाटक की वह विधा है, जिसमे अनुकरण पर सार्वधिक बल दिया गया है। लेकिन यहाँ सवाल उठता है। अनुकरण किसका हो, इसका उत्तर है, कार्ज तथा मनवीए जीवन के क्रियाशील कार्जो का मनुष्य अनेक परिस्थितियों से हर क्षण गुजरता है। उनकी भिन्न -भिन्न आवस्थाएँ होती है। भिन्न भिन्न अवस्थाओं में रहने के कारण उनके जीवन रंगमंच पर अनेक दृश्य अनेक स्थितियाँ आते जाते रहते है। नाटककार नाटक की रचना करते समय इन्हीं स्थितियों का अनुकरण करता है। नाटक का स्वरूप- नाटक में जीवन का यथार्कमूल्य अनुकरण होते हुए भी नाटककार काल्पना भी करता है। यदि काल्पना नाटक को साहित्य की विधा प्रधान करती है, इसलिए नाटक एक ऐसी कला है, जिसमे अनुकरण और काल्पना दोनो का योग रहता है। इसका उद्देश्य पहले शिक्षण और मनोरंजन था लेकिन अब इसका लक्ष्य जीवन की विभिन्न समस्यों का उदघाटक करना, और मानविऐ सवेंदनाओं को प्रकाश मे लाना है। यही कारण है कि प्रचीन काल के नाटकों से आज के नाटक बिल्कुल भिन्न पाऐ जाते है। नाटक के तत्व- भारतीये दृष्टि से नाटक के तीन तत्व माने गये है, वस्तु, नेता,(कलाकार) और रस वस्तु नाटक के कथा को कहते है। जिसके दो प्रकार होते है। आधिकारिक कथा और प्रशागिक कथा आधिकारिक कथा वह है, जो नाटक में आरंम्भ से अन्त तक पायी जाती है। और प्रशागिक कथा लघु होती है, जो नाटकीय कथा वस्तु की। धारा मे कुछ दूर चल जाती है। समाप्त हो जाती है, प्रचीन काल के नाटकों मे कथा दोहरी रूप में होती थी। अधिकारिक और प्रशागिक दोनो प्रकार के कथा वस्तुओं का उपयोग होता था, लेकिन आज की नाटकों में कथावस्तु एकी तरह के होती है अथात् केवल अधिकारिक कथा का प्रयोग होता है। आज का नाटक आदशवादी से अधिक यथातवादी हो गये है। ऐतिहासिक पौराणिक से अधिक समाजिक राजनिजिक हो गये है। नेता या कलाकार- नेता चरित्र को कहते है। यह नाटक की कथावस्तु का नेत्रित्व करता है, इसे नायक भी कहते है। लेकिन नेता में नाटक की सभी प्रकार के चरित्रों का समावेंश होता है, जैसी-नायक, नाईका, विधुशंक, प्रतिनायक, लघुचरित्र इत्यादि। नाटक शास्त्र के अनुसार नायक को सदगुण सम्पन होना चाहिए नाईका को भी उसी के अनुरूप होना चाहिए। प्रचीन नाटकों के अंत में नायक, नाईका की विजय और प्रतिनायक के प्रजय दिखायें जाते थें, इस प्रकार के नाटक को सुखअंत नाटक कहते है। किन्तु आज दुखअंत नाटक भी लिखे जा रहे है। जिसमें नायक नाईका की दुखत अर्थ या उसकी मृत्यु हो जाती है। रस- यह काव्य और नाटक दोनों की आत्मा है। प्रचीन दृष्टि से नाटक में श्रृंगार कारूण और वीर तीनों रसों में कोइ एक प्रधान हो, ऐसी व्यवस्था है। नाटक की अंत में सत्य की जीत होती थी, इसलिए दशकों को आनन्द प्राप्त होती थी। वास्तव में रस नाटक के अतं में सारभूत प्रभाव होता है, लेकिन इसकी अवश्यकता नही समझी जाती है। नाटक के दो और तत्व देखने को मिलती है। जो नाटक से सीधा संबंध रखता है। इसमे रंगमंच नाटक से सीधा सम्बंध रखता है इसलिए नाटक को दृष्टि काव्य भी कहते है। अथात् इसे देखा जाये। नाटक की रचना तभी सफल होती है, जब वह रंगमंच पर सफलता पूर्वक अभिजीत किया जाऐं। साहित्य की अन्य विधाओं में रंगमंच की अवश्यकता नहीं होती। भाषा- नाटक की भाषा समान्यता सरल सुबोध और व्यवाहरिक होनी चाहिए इसकी भाषा में काविता की भाषा नही होनी चाहिए। यह पत्राअनुकूल हो, और देशकाल के अनुरूप हो, साहित्य की सभी विधाओं में नाटक सबसे अधिक लोकप्रिय है। क्योकि नाटक में दृश्यो को देखकर जो आनन्द मिलता है, वह कविता या उपन्यास पढंकर नहीं मिलता, समाजिको के मन में इसका सीधा प्रभाव पड़ता है, इसलिए इसकी महक्ता,महत्व सर्वधिक है।
कहानी- साहित्य की सभी विधाओं में कहानी सबसे पुरानी विधा है, जनजीवन में यह सबसे अधिक लोकप्रिय है। प्राचीन कालों मे कहानियों को कथा, आख्यायिका, गल्प आदि कहा जाता है। आधुनिक काल मे कहानी ही अधिक प्रचलित है। साहित्य में यह अब अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी है। पहले कहानी का उद्देश्य उपदेश देना और मनोरंजन करना माना जाता है। आज इसका लक्ष्य मानव- जीवन की विभिन्न समस्याओं और संवेदनाओं को व्यक्त करना है। यही कारण है कि प्रचीन कथा से आधुनिक हिन्दी कहानी बिल्कुल भिन्न हो गई उसकी आत्मा बदली है और शैली भी। कहानी के तत्व- मुख्यतः कहानी के छ तत्व माने गये है। [1] कथावस्तु [2] चरित्र-चित्रण [3] संवाद [4] देशकाल या वातावरण [5] उद्देश्य [6] शैली [1] कथावस्तु- कथावस्तु के बिना कहानी की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह उसका अनिवार्य अंग है । कथावस्तु जीवन की भिन्न- मिन्न दिशाओं और क्षेत्रों से ग्रहण की जाती है । इसके विभिन्न स्रोत है, पुराण, इतिहास, राजनीतिक, समाज आदि। कहानीकार इनमे से किसी भी क्षेत्र से कथावस्तु का चुनाव करना है और उसके आधार पर कथानक की अट्टालिका खड़ी करता है। कथावस्तु में घटनाओं की अधिकत...
What is question for exam
ReplyDeleteBest
ReplyDeleteWhat is questins at 11th exam
ReplyDeleteKahani ki kala isske bare main bata sakte hai ..
ReplyDeleteNatak ki aeadharna ke bare me bata sakte hain
ReplyDeleteContent acha hai pr galtiyan bahut jyada hai jisse samjhte waqt samasya aa rahi hai ..kripa kar galtiyan sudharein iss content main se.
ReplyDeleteParibhasha short kro itne bde matter m ham paribhasha kaha search kre
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