भाषा के विभिन्न रूप वस्तुतः जितने व्यक्ति हैं, उतनी भाषाएं हैं, कारण यह है कि किन्हीं दो व्यक्तियों के बोलने का ढंग एक नहीं होता। इसका प्रमाण यह है कि अंधकार में भी किसी की वाणी सुनकर हम उसे पहचान लेते हैं। यह अन्तर केवल बोलने के ढंग से ही नहीं, उच्चारण, शब्द भंडार, यहां तक कि वाक्य विन्यास में भी देखा जाता है। साहित्य में इसी का अध्ययन शैली के अंतर्गत होता है। प्रेमचंद्र की भाषा प्रसाद से भिन्न है और पन्त की निराला से। हिंदी का प्रयोग तो यों सभी करते हैं, फिर यह अंतर क्यों ? जो इन लेखकों या कवियों की रचनाओं से परिचित है, वे दो - चार पंक्तियां पढ़ते - पढ़ते भी अन्यास कह देते हैं कि यह अमुक की भाषा है। प्रेमचंद और प्रसाद की भाषा मे किसी को भ्रम नहीं हो सकता। यह इसलिए कि उस भाषा के पीछे उनका व्यक्तित्व है व्यक्तित्व का यह प्रभाव शिक्षित व्यक्तियों की ही भाषा में नहीं, बल्कि अशिक्षितों की भाषा में भी उसी रूप में पाया जाता है। जिसका जैसा व्यक्तित्व है, उसकी भाषा उसी सांचे में ढल जाती है। इस तथ्य को स्वीकार कर लेने पर भाषा के अनंत रूप ...