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साहित्य और समाज

यह कल्पना द्वारा पूर्ण होता है पर मानव कल्पना जीवन एवं जगत के अनुभव से प्राप्त करता है और वह अनुभव समाज से प्राप्त होता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है और वह समाज से हर पल नए-नए अनुभव प्राप्त करता है एवं प्रत्येक अनुभवों को कल्पना के माध्यम द्वारा मनुष्य अपने कला को सृजित करता है इसी कारण प्रसिद्ध ग्रीस आचार्य एरिस टोटल ने साहित्य को जीवन एवं जगत का अनुकरण मानते थे। उनके मतानुसार साहित्य जीवन एवं जगत का नकल है। जीवन एवं जगत में हो रहे घटनाओं को साहित्यकार अपने कला से नकल करता है एवं फिर से उसी समाज को लौटा देता है। साहित्यकार जिस समाज एवं वातावरण में रहते हैं उस समाज एवं वातावरण की सभी स्थितियाँ उसे हमेशा प्रभावित करते रहता है। साहित्य संस्कृत के सहित शब्द से बना है। साहित्य की उत्पत्ति को संस्कृत साहित्य के आचार्यों ने हितेन सह सहित तस्य भव: की संज्ञा दिए हैं किसका अर्थ है कल्याणकारी भाव। साहित्य में जीवन एवं जगत का कल्याण होना अनिवार्य है क्योंकि इसमें सहित की भाव होती है, जो लोक जीवन के कल्याणकारी भाव को सम्पादन करता हैं। साहित्य के हर क्षेत्र में शब्द एवं अर्थ के योग के

semester- 3 साहित्य की परिभाषा

            साहित्य की परिभाषा - साहित्य का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए संस्कृति , हिन्दी और पश्चात के विद्वानों ने साहित्य की जो परिभाषाऐ पस्तुत की है उसे देखना होगा। कुछ मह्तवपुर्ण परिभाषाओं को ही हम यहाँ पस्तुत करेगे। पस्तुत परिभाषाऐ डा० भगीरथ मिश्रा के काव्य शास्त्र ग्राथ से यहाँ ली गयी है- (अ) संस्कृति विद्वानों द्वारा साहित्य की परिभाषा-(1) अग्नि कुराण- [संक्षेपाद्वाव्यमिष्टार्थव्यवच्छिना पदावली। काव्यं स्फुरदलंकारं गुणवद्दोपवर्जितम् ।। ] अर्थात् - संक्षेप में इष्ट अर्थ को प्रकट करने वाली पदावली से युक्त ऐसा वाक्य काव्य है , जिसमे अलंकार प्रकट हो , और जो दोषरहित और गुणयुक्त हों। ● भामह की परिभाषा -[ शब्दार्थो सहिर्तो काव्यम् ] अर्थात् - शब्द अर्थ का संयोग काव्य है। यह परिभाषा अत्यन्त व्यापक है , क्योकि इसमें क्षेत्र में काव्य के अतिरिक्त शास्त्र , इतिहास , वार्तालाप आदि सभी आ जाते है। इस कारण इसमें अतिव्याप्ति का दोष है। ● आचार्य विश्वनाथ - [ वाक्यं रसात्मक काव्यम् ] अर्थात् - रसयुक्त वाक्य काव्य है। ● पंडितराज जगन्नथ - [ रमणीयार्थ पतिपदक: शब्द काव्यम् ] अ